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Khari Khari, Drisht Kavi and Kuchh Rang Pyar Ke and other Posts from 3 to 8 Feb 2023

 "ज़िन्दगी से शिकायतें कैसी

अब नहीं हैं अगर गिले थे कभी
भूल जाएँ कि जो हुआ सो हुआ
भूल जाएँ कि हम मिले थे कभी"
◆ अहमद फ़राज़
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ये हिंदी के वो लोग है जो लुगदी लिखते, ओढ़ते, पढ़ते एवं बिछाते है, ये वे है जो गूदा / गुदा पर लिखवाते है और खुद घटिया उपन्यास लिखकर प्रसिद्धि पाना चाहते है, इन्होंने कब्ज़ा कर रखा है इंडिया टूडे से लेकर तमाम साइट्स पर और प्रकाशन गृहों पर, चार - छह कुत्ते बिल्ली टाइप फर्जी लेखक पालकर ये आत्म मुग्ध बने रहते हैं, ये वे अश्लील लोग है जो प्रगतिशील कहलाते है, इनके घरों में ना महिलाएं है और ना बच्चे - जो इस तरह से घटियापन की सीमाएं पार करके अपनी औकात दिखा रहें है
कमाल है आग्नेय की बुद्धि पर और विलक्षणता पर जो हर बार किसी ना किसी मूर्ख को सम्पादकीय दे देते है , मतलब यह कि आग्नेय खुद भी निम्न स्तर के घटिया कवि थे, है, और रहेंगे हमेंशा
यह सारी आग पुस्तक मेले में अपनी आत्म मुग्ध किताबों को बेचने के जतन है क्योंकि जो घटिया है वही दिखेगा और वही बिकेगा
बेहद शर्मनाक है
शर्मनाक है , मुझे ना कविता नही समझती और ना कवि हूँ पर यह जरूर जानता हूँ कि यह नीचता कविता नही है


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|| शादियाँ और शोर ||
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समय आ गया है कि एसपी और कलेक्टर्स को ध्वनि प्रदूषण के लिए जवाबदेह बनाया जाये और गैर जिम्मेदार होने पर कड़ी सजा का प्रावधान हो - सिर्फ़ बर्खास्त करने से काम नही होगा
जिस अंदाज में सड़कों पर बारातें नँगा नाच करते हुए और भयानक डीजे, ढोल ताशे बजाते हुए निकल रही है वह किसी भी सभ्य समाज और शहर में बर्दाश्त नही होगा
क्यों ना कलेक्टर और एसपी सभी साउंड सिस्टम, विवाह घर के मालिकों, बैंड वालों और ढोल ताशों वालों को बुलाकर समय सीमा और ध्वनि के डेसिबल से ज्ञात करवा दें साथ ही बारात पर कड़े प्रतिबंध लगाएं, और उपकरण जप्त कर लें यदि यह सीमा से बाहर है तो
इसी के साथ मन्दिर मस्जिदों के ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर भी प्रतिबंध लगायें मतलब हद से ज़्यादा हो गया है ससुरे दिनभर भागवत पुराण से लेकर भजन गीत बजाते रहते है, कर्कश आवाज में प्रवचन चलते रहते हैं, एक साथ तीस - पचास मस्जिदों के कानफाड़ू माइक से नमाज़ की आवाजें आती रहती है
यह सब क्या है और क्यों है, किस अल्लाह या भगवान ने कहा कि भोंगे से भक्ति का सत्यानाश करो
ऊपर से बारातों का वीभत्स होता स्वरूप बेहद चिंताजनक है, लोग नवविवाहित जोड़ो को दुआ के बदले गालियाँ देते है और इन पोंगा पंडितों को मूर्खो की तरह से उत्तेजक होकर प्रवचन के बीच में फिल्मी तर्ज पर गीत शुरू कर देते है, को कोसते है
जीना हराम कर रखा है इन लोगों ने, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश होने के बाद भी रात भर ये कम्बख़्त झूमते रहते है - मूल मानव भी नही बचें है ये सब लोग हिन्दू हो या मुस्लिम - अरे ईश्वर आराधना शांत चित्त से की जाने वाली अकेलेपन की प्रक्रिया है, शादी जैसे पवित्र बंधन को बर्बाद कर दिया इन कमीने बैंड वालों ने
सुधर जाओ और ब्यूरोक्रेट्स से क्या कहना ये तो है ही गिरगिट और समाज से दूर शुक्र ग्रह से टपके जीव जंतु - एकाध बार इनके तथाकथित सिविल लाइन के बंगलों पर दिल खोलकर ढोल ताशे और डीजे बजाने का मन है पूरे सीजन भर तब अक्ल आएगी पढ़े-लिखें और देश के क्रीम उर्फ गंवार कम्बख्तों को
कितना बर्दाश्त करें कोई इन नालायकों को
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"अरे आप गए नही तुर्की"
"क्यो क्या है वहां, कोई कवि गोष्ठी है क्या"
"नही जी, भूकम्प आया है, बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए है, बिल्डिंग्स टूटी है"
"ओह, मैंने नही देखा, पर आपने मुझसे क्यों पूछा"
"अरे कुछ नही, कई लोग गए है, जेसीबी से लेकर डॉग स्क्वाड तक भी गया है - तो सोचा कि आप भी ....."
लाईवा हैदस में था, उसे कुछ सम्पट नही पड़ रहा था
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उनसे मिलकर हमें रोना था, बहुत रोना था
तंगी-ए-वक्त-ए-मुलाकात ने रोने ना दिया
◆ फ़ाकिर
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कल रात 4 बजे तक जेहानाबाद देखा सोनी लीव पर , मजा नही आया , गाली गलौज है ही नही मिर्जापुर जैसा और जब तक गालियाँ न हो तो मजा ही नही आता, नक्सलवाद क्या गालियों से अछूता है
जितेंद्र कुमार उर्फ पंचायत सचिव मल्लब कालेज में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले माड़साब के भेष में नक्सलवादी है जो पिरेम करता है योजनागत तरीके से और आख़िर में इश्क और अस्मिता की लड़ाई में हार जाता है, उसकी माशूका अंत में कामरेड बन जाती है छग में
बढ़िया तो नही पर देख लेना चाहिये, क्योंकि ऐसा कुछ नही इसमें कि लम्बे समय तक इसे याद रखा जायेगा, बहुत सामान्य सी कहानी है और कमज़ोर निर्देशन, कहानी का फ्लो भी ढीला है और कलाकार जरूर ठीकठाक है पर उससे क्या होता है
जिसने छग या दण्डकारण्य क्षेत्र के नक्सलवादी आंदोलन पढ़े - देखें और समझे हो, नक्सलवाद की Impact Studies की हो - उसके लिए यह सब बहुत सामान्य है और बल्कि अतिशयोक्ति है - ना आंदोलन ऐसे चलते है और ना ही कोई अभियान
बहरहाल मेरे हिसाब से बेहद सामान्य सीरीज़ है, इससे तो सीआईडी या क्राइम पेट्रोल का एक एपिसोड बेहतर होता है बजाय साढ़े छह घण्टे बर्बाद करने के
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|| चलबोले की महिमा ||
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बहुत बड़ा काम हो, लम्बा लिखना या एक्सेल पर काम करना हो तो ही लेपटॉप की ज़रूरत पड़ती है वरना 99% काम आज मोबाइल से हो जाते है
आने वाले समय में मोबाइल को लेकर ही संभावनाएं है, सारे काम है मोबाइल पर है और सबसे ज़्यादा रिस्क भी है मोबाइल ही है, इसलिए मोबाइल का इस्तेमाल सोच समझकर करें और हर हाल में इसे जान से प्यारा मानकर इसकी सुरक्षा भी करें और सीमित उपयोग भी
सॉफ्ट वेयर वाले भी ज़्यादातर मोबाइल एप्स और मोबाइल तकनोलॉजी पर काम कर रहें है वे एप्स - बैंकिंग के हो, आरक्षण के, टिकिट के, लेनदेन के या सोशल मीडिया से सम्बंधित और शादी ब्याह करवाने से लेकर तलाक करवाने तक और न्याय से लेकर सुपारी देने तक के सब काम अब मोबाइल पर है, दीवारों के कान होते है जैसी कहावत के बदले मोबाइल के तेज कान है यह सिद्ध हो चुका है और अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़माने में और क्या ही कहा जाये
पिछले कुछ दिनों में यह गम्भीरता से महसूस किया है और कुछ दुखद प्रसंग भी घटित हुए इसलिये यह सब अपने लिए लिखकर खुद को सचेत कर रहा हूँ
ख़ैर, आप सब लोग तो महाज्ञानी है ही, अभी ज्ञान का रायता बांटने चले आयेंगे
बस इतना ही कि सतर्क रहें , सुरक्षित रहें - यह सिर्फ एक गज़ट है और इसे अपने ही जीवन पर हावी ना होने दें
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2024 के आते - आते सबको दलित, यादव, साहू, जायसवाल, तेली, तम्बोली, राठौर, राठौड़, मुस्लिम, बुद्धिस्ट, पारसी, सिख, ईसाई और आदिवासी जान से प्यारे हो जाएंगे - बस देखते जाओ
तो जपो -
रामो राजमणि सदा विजयते
रामो मोहनमः भजे
राधे बुद्धम जय भीमम पण्डितम तजे
जीससम वाहे गुरू ते धजे
अल्लाह रामम निकटम आवते
वोटम चुनावम भये
अहो रामम, अहो दलितम
अहो मोदीम अहो राहुलम
अहो भागवतम
अहो चुनाव अयोग्यम कथा समाप्तिम अस्ति
इति !!!

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आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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