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मैं किसी तारे सा चमकता दूर से बीज को पिता बनते देख मुस्कुराता रहूँगा - पितृ ऋण के तीस बरस 27 मई 2019

पितृ ऋण के तीस बरस 
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स्मृति में यादें धुँधली पड़ रही है पहली स्मृति 1969 के आसपास की है, माँ के साथ कसरावद से लौट रहे है और नर्मदा उफान पर है स्कूल पूरा कर पहले माले पर बने छोटे से घर मे ताला लगाकर हम तीनों भाइयों को लेकर बस में बैठी, बरसात है और बस चल दी है

रास्ते में पता लगता है कि नर्मदा माई आज उफान पर है , कुंदा नदी भी - रास्ते मे रुकना पड़ेगा, कंडक्टर कहता है, रात भर जागकर लौटते है, बस स्टैंड पर साइकिल लिए इंतज़ार में कोई है और उन्हें देखकर ही पुलकित हो उठते है हम तीनों भाई एक बड़ा, फिर मै और माँ की गोद मे छोटा
माँ की हिम्मत को संवारते है पिता, आंखों में सम्मान और हाथ से बेग छीनकर सायकिल पर लटका लेते है और हम दोनों को आगे पीछे बैठा लेते है छोटा माँ की गोद में लहालोट है पिता को देखकर, सायकिल लुनियापुरे वाले घर पहुंचती है महू में
सुबह ही निकल जाते हो बाजार - घर में सात भाई बहन और माता पिता है , सबकी जिम्मेदारी सिर्फ दो बहनों की शादी हुई है ; ग्वालियर स्टेट में दसवीं पास कर नौकरी लगी थी शिक्षक की, तन्ख्वाह थी साठ रुपये प्रतिमाह उसी से अपना और घर का खर्च चलना कितना मुश्किल रहा होगा
माँ से शादी हुई तो वह भी ननिहाल की बड़ी जिम्मेदारियां लेकर आई थी - आठ भाई बहन, वो कमाती और एक बड़ा भाई, माँ की सबसे छोटी बहन बीमारी में मर गई, शोभा नाम था- कहते है यक्ष्मा के इलाज के अभाव में एम वाय में गुजर गई, नाना नही थे माँ और बड़ा भाई कमाऊ थे, बाकी सब पढ़ ही रहे थे , शादी के बाद मण्डलेश्वर से महू और फिर कसरावद में नौकरी, पीहर, ससुराल और हम तीन - मेरे देखते देखते माँ बाप जिम्मेदारी में ही उलझे रहें , पर एक बात जरूर है दोनों बहुत मैच्योर थे अपने अपने भाई बहनों को पढ़ाते रहें, तनख्वाह से ध्यान रखा उनका और कभी हिसाब नही पूछा एक दूसरे से
पढ़ाई के बाद उनकी शादियां की, दो तीन जापे किये बहनों के और बहुओं के, सास ससुर की मांगें पूरी की और हम तीनों भाइयों ने माँ और पिता को गृहस्थी में पिसते हुए देखा, उनके झगड़े देखें और समझ भी , पर कभी शिकन नही देखी चेहरे पर हम तीनों भाई भी पढ़ते रहें
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मृत्यु हमें जीवन की खुशी का राज बताती है और जीवन हमें मृत्यु की ओर ले जाता है , द्वंद कभी ना खत्म होने वाले दंश है जो डसते है उन पलों को जो कभी सार्थकता लाये थे जीवन में, सांप की बाम्बीनुमा जीवन में केंचुल बदलते हुए हम भी भयावह हो जाते है लगता ही नही कि कब हम बड़े हुए, प्रेम ,अबोधपन और बचपने को छोड़कर यूं पक्के होते गए मानो नींव में धँसा सीमेंट जमकर पत्थर हो जाता है

जीवन के अंत मे मृत्यु का स्वीकार दारुण्य की चरम अवस्था है , जब कोई चला जाता है उस सबको छोड़कर - जो तिनका तिनका इकठ्ठा कर सहेजा था, अपने पसीने और खून से सींचकर, जो बोकर बड़ा किया था , जिन मेढ़ों पर बैठकर रखवाली की थी - वह सब एकाएक छोड़ देना पड़ता है तो तकलीफ होती ही होगी पर देह के निर्वासन के बाद कोई कह नही पाता, लकड़ियों के बीच प्रज्ज्वल अग्नि और धुएँ में कपाल फूटने की आवाज़ के साथ मानो वो दुख बहुत कातर स्वरों में गूंजता है , पर उसकी अनुगूंज उन्हें ही सुनाई देती है जो उस मृत्यु को प्राप्त कर चुके व्यक्ति के संघर्ष का भागी रहा हो - जिसने उसे हंसते, रोते, खीजते और सबके बाद भी पुनः जीवन के चौराहों पर आकर दौड़ते - भागते देखा हो, उसकी साँसों के संग एकाकार हुआ हो और शरीर की धमनियों में आखिरी समय पर खून को धीमे पड़ते देखा हो
पिता के साथ ज़्यादा रहें ही नही, माँ मालवा में और वे निमाड़ में रहें छैगांव माखन ( खंडवा) मनावर और माँ भौरांसा और फिर देवास , बस ज़ेहन में गर्मी और दीवाली की छुट्टियां है कुछ , जब हम मनावर रहते, दीवाली में महू में बड़े घर इकठ्ठे होते और माँ पिता सबको कपड़े करते तो हमें भी नए कपड़े मिलते; दूसरे बच्चे चिढ़ाते कि साला तेरे पिताजी मालवा मिल से थान उठा लाये और पूरा खानदान एक जैसे कपड़ों में है - पर ना समझ थी ना व्यंग्य समझने की क्षमता, बस मुस्कुराते ; पर अब याद आता है कि पिता और माँ पूजा वाले दिन धुले कपड़े पहनते, दोपहर को एक पीतल के लोटे में अंगार डालकर अपने पेंट शर्ट और माँ की सूती साड़ी को इस्त्री करते और कहते कि सूती कपड़े पहनने से लक्ष्मी खुश होती है और धन धान्य का वरदान देती है
त्योहार की मस्ती समाप्त होती तो दादी बेटियों को फ़राल का बांधकर देती और हम लोग खाली हाथ घर लौट आते माँ के साथ, पिता कंगाल हो जाते पर महू में - अपने दोस्तों से शायद उधार लेकर लौटते, दीवाली का यह गढ्ढा भरने में तीन चार माह लग जाते और इस बीच वो जब मनावर से घर आते तो खर्च को लेकर झगड़ते
माँ का कहना पड़ता था इतना क्यों लूटा देते हो , अब सब नौकरी में है, यहाँ कब तक किराए के मकान में रहेंगे , बजरंग पूरे की मकान मालकिन एक विधवा बुढ़िया थी - जिसे सब बनवडिकर जीजी कहते थे , वो अक्सर माँ से झगड़ती कि किराया बढ़ाओ या खाली कर दो मकान, हाथ मटका - मटका कर आंगन में खड़ी हो जाती और कहती लेते क्यों नही प्लाट, बड़े बड़े बोर्ड लगें है - किश्तों में ले लो, माँ को यह नागवार गुजरता और जब पिता आते तो माँ यह पुराण लेकर बैठती
पिता झगड़ते, फिर कुछ देर में शांत हो जाते -नब्बे ढाई सौ का वेतनमान और मनावर, देवास के खर्च - हम तीन भाई जो किशोर हो रहे थे - माँ दो से ढाई किलो का आटा गूंथती थी और रोटी बनाकर बस स्टैंड की ओर भागती, उसकी हेड मास्टरनी घर के पास ही रहती थी, कहती -नाईक मैडम रोट थापकर आई है , इनके बच्चे बहुत रोटी खाते है और माँ को गुस्सा आता कहती - अब नही खाएंगें तो कब खाएंगे, यही बात वह पिता को भी कहती, मनावर जाते समय तो माँ को वो तीन चार सौ रूपये और हमें भरपेट जलेबी या आइसक्रीम खिलाकर जाते थे
आमदनी कम, जिम्मेदारी ज्यादा और माँ बाप की अपेक्षा साथ ही एकाध निकम्मा भाई - माँ बाप दोनो का हो तो सबसे ज्यादा बच्चों को मुसीबत होती है और हमारे यहाँ तो माँ और पिता दोनो को भाई - बहनों की जिम्मेदारी के साथ एक - एक निकम्मा भाई मिला जो पिता के मरणोपरांत भी परजीवी बना रहा और जोंक की तरह उन्हें चूसता रहा , हालांकि बाद में हम बड़े हुए तो मदद की , पर पिता के जीवन में तथाकथित सुख तभी आया जब उनका स्थानांतरण 1985 में मनावर से देवास के पास टोंकखुर्द में हुआ
घर में आकर वो बीमार हो गए थे या यूं कहूँ कि बीमार होकर ही घर आये थे, इतने बरस अकेले रहकर थक गए थे - शरीर पस्त हो गया था और नौकरी पर कम अस्पताल में ज्यादा रहें , माँ की जिद पर एक प्लाट ले लिया था - 169 रुपया महीने की किश्त थी, उसे बनवाया भी था लोन लेकर और 1982 में हम नए मकान में शिफ्ट भी हुए थे, दादी की जिद पर हम तीन भाइयों का यग्योपवित संस्कार भी करवाया था , दादी ने इस बहाने अपनी तमन्नाएं पूरी की और मेरे गरीब माँ बाप को बड़ा कर्जदार बना दिया, उन 15 दिनों में सगे रिश्तेदारों ने जो अन्न से लेकर बाकी बर्बादी की थी, छत पर गादी बिस्तर जलाकर गए थे - जलन के मारे - उन्हें भी पिता ने जानते हुए भी कुछ नही बोला और माफ कर दिया , जीवन भर उन्होंने कभी यह जताया भी नही
चरित्र किसे कहते है यह तो याद नही, पर पिता को बहुत सारे खांकों में देखा था और आज जब मैं 52 का हो गया हूँ और ठीक उम्र के उसी मुहाने और माह मई पर खड़ा हूँ जब उन्होंने मृत्यु का वरण किया तो मेरे अंदर पिता का साया रोज पूछता है कि जीवन का प्रारब्ध, संघर्ष, निस्पृहता और सत्व सब कुछ दे देने में ही निहित है क्या
मैं सिर्फ यादों के संग जाग रहा हूँ - क्योकि तीस वर्ष पूर्व मैं इंदौर के क्लॉथ मार्केट के अस्पताल में तुम्हे बचाने को जूझ रहा था और हर सांस पर मेरी तीखी नज़र थी
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मध्यम वर्गीय परिवार में घर एक सपना होता है खासकरके जब परिवार की जिम्मेदारी हो, खुद अपना परिवार हो, सस्ती सी कोई नौकरी हो और ऊपर से आप घर से दूर रहकर तीन चूल्हे चला रहे हो माँ बाप का, पत्नी बच्चों का और अपना खुद का

माँ के लगातार आग्रह पर दुर्गाबाग में 30x50 का एक प्लाट पिताजी माँ ने ले लिया था - 169 रुपया महीना किश्त थी, यह जगह तत्कालीन देवास सीनियर यानी बड़ी पाती के महाराज की जगह थी, आलीशान महल बना था, उनकी कुलदेवी दुर्गा का प्राचीन मंदिर था, राजे रजवाड़े खत्म हुए और इनसे जुड़े मराठे नंगे नवाब किलों पर घर जैसी स्थिति में थे सब दारू और झूठी शान में बर्बाद थे, लिहाज़ा यह जमीन बिक गई इंदौर के कालानी नामक बनिये ने खरीद ली और इस पर कॉलोनी काट दी - एक मराठी बामण बागदरे था जो इस कॉलोनी के दफ्तर में बैठता था और प्लाट खरीदने वालों की किश्त वसूलता था
बड़ा भाई सायकिल से दौड़ता था - रेत, गिट्टी , ईंट के लिए और दिन रात लगा रहता, पिता मनावर में थे - माँ भौरांसा जाती थी, हम दोनों छोटे भाई घर सम्हालते, घर बना भाई की मेहनत रँग लाई , उस समय यह मकान कॉलोनी का सबसे मजबूत और सुंदर मकान था; मुझे याद है सीमेंट पर नियंत्रण था और कलेक्टर के दफ्तर से मिलता था हर हफ्ते चार बोरी , बड़ा भाई लगातार चक्कर लगाता - कागजी कार्यवाही करता और सीमेंट का जुगाड़ करता इस घर के होने में उसकी किशोरावस्था खत्म हो गई थी पर आज जब हमारे बच्चे या कोई कहता है कि क्या मकान है, इसे बेच दो तो चालीस साल का इतिहास, संघर्ष और माँ पिता के चेहरे सामने घूम जाते हैं
इसके पहले एशिया की तत्कालीन सबसे बड़ी आवासीय कॉलोनी सुदामा नगर, इंदौर में एक मकान बुक किया था - पर किसी बुआ की शादी के खर्च के कारण जमा एडवांस वापिस ले लिया, फिर एरोड्रम के पास कालानी नगर में डेढ़ हजार में एक प्लाट खरीदा था - जो बरसों पड़ा रहा, पर पिता के आखिरी दिनों में इलाज के लिए सन 1988 में मात्र इक्कीस हजार में बेचना पड़ा - क्योंकि माँ स्वाभिमानी थी, वह उधार नहीे लेती थी - इलाज के लिए और अपनी स्थाई सम्पत्ति इतनी कम क़ीमत पर बेच दी और अस्पताल का बिल भरा था
मुझे याद है पिता को शक्कर की बीमारी थी, देवास में पीजीआई चंडीगढ़ से पढ़कर एक युवा डॉक्टर आये थे और हम उसके सम्भवतः पहले मरीज़ थे - हम से आशय माँ पिता और नानी भी; पिताजी की पेशाब में शक्कर की जांच मैं करता था, आठवी में था और बायलॉजी में रूचि थी, स्कूल में मेंढक, यूनियो, पाईला काटता था हिबिस्कस का विच्छेदन करता था तो बचपन से डॉक्टर बनने के मुगालते थे
डॉक्टर प्रकाश मोघे ने बेनेडिक्ट विलयन से परखनली में पेशाब की दो बूंद डालकर शक्कर की जाँच करना सीखाया था, कागज के गत्ते पर पेशाब की बूंद डालने पर मैं लाल, केसरिया रंग और उनका फैलाव देखता था , इस तरह शक्कर की बीमारी से पुराना याराना है - दो बार जाँच करता था - सुबह खाली पेट और फिर भोजन के बाद और बड़े चाव से मोघे साहब को दिखाता , इस तरह इन्सुलिन का इंजेक्शन भी लगाना सीखा जो आज अपने लिए काम आ रहा है; एक बार मोघे साहब पिताजी की बीमारी पकड़ नही पाएं तब किसी सरकारी लेब असिस्टेंट मालवीय जी ने सेम्पल टेस्ट कर टीबी बताया था, और इलाज से ठीक हुए पर लंबे समय अकेले रहकर शरीर खत्म हो रहा था, वे बार बार बीमार पड़ते और 1988 अंत से जब पिता जी गम्भीर बीमार पड़ने लगें तो क्लॉथ मार्केट इंदौर के अस्पताल में दिखाना पड़ा जहां उन्होंने भर्ती कर लिया जाता एक दो माह के लिए
एक डेढ़ माह बाद रुपया खत्म हो गया, छुट्टी पर होने के कारण पिताजी को तन्ख्वाह नही मिली और माँ को घर के साथ साथ इलाज का खर्च और लोन की किश्त भी देना पड़ती थी, भाई कमा रहा था पर बहुत ही कम और मुझे वाद विवाद प्रतियोगिताओं में जितने पर जो भी रुपया नगद मिलता मैं इलाज के दे देता, वे आंखों से आखिरी दिनों में देख तो नही पाते पर माँ को कहते कि बच्चों के इन रुपयों से इलाज करवाने से बेहतर है मौत
तेंदू पत्ता से बिचौलियों की समाप्ति , कम्प्यूटर से बेरोजगारी बढ़ेगी या द्विदलीय शासन पद्धति से ही भारत में लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल है - जैसे लोकप्रिय विषयों पर जिला, राज्य स्तर तक वाद विवाद प्रतियोगिताएं होती थी और मैं पक्ष या विपक्ष में प्रथम आकर एक से ग्यारह हजार रुपये तक इनाम जीतता और जीत के रुपये हाथ में लेते हुए माँ की आँखें भी भीग जाती पर उसके संघर्ष में ये बकलोली की मेहनत से जीते रुपये कुछ भी नही थे, इस तरह पिता का इलाज चलता रहता
जीवन में अस्पताल, दवाईयां, डेटोल की खुशबू , बैंडेज, एम्बुलेंस, मलयाली नर्सेस, खून पेशाब और मल की जांच से इतना वास्ता पड़ा है कि अब घबराहट ही नही होती बल्कि अब किसी को देखने जाने की हिम्मत ही नही होती, अस्पताल का नाम सुनकर या पढ़कर ही अब उल्टी हो जाती है, बहरहाल
आज का यह मकान जो हमारा आश्रय है पिता और माँ की चिकचिक, मेहनत और पसीने के श्रम की देन है जो 1982 में बनकर अंत में तैयार हुआ, जब आये थे तो मात्र ग्यारह मकान थे, 57000 रुपये का लोन लेकर बना यह मकान किश्तों में अपने होने को साकार करता रहा बरसों जब तक पिता की मृत्यु ना हुई क्योकि बीमा था तो उनकी मृत्यु के बाद लोन माफ़ हो गया पर मरने तक हर तीसरे माह 1300 रुपये की किश्त भरना कितना दुश्वार था यह मैंने देखा है
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मरा हुआ आदमी एक समय के बाद याद नही आता सिर्फ उससे जुड़ी हमारी कमजोरियां जो जेहन में रह जाती है याद आती है और यह भी सब धीरे से खत्म होती है , मौत का मंजर एक मात्र ऐसा मंजर है जो आँखों के सामने घटित होता है, हम सबको मालूम है कि यह जीवन का अंत है, कल हम भी इसी दौर से गुजरेंगे और यूँही तमाशाई इकठ्ठे होकर अपनी मौत भी हममें ही देखेंगे पर हम सब कुछ जानते हुए भी चीखते हैं , रोते है और विलाप करते है और मौत को देखते है

श्मशान वैराग्य से उभरने में एक डेढ़ घण्टा भी नही लगता, मौत का गम घुलने लगता है और हम सामान्य होने लगते है, हम भूलते है उस विदा हुए शख्स को, इसलिए नही कि हम भूलना चाहते है - बल्कि इसलिए कि हम जिंदा रहना चाहते है सदा के लिए - हमें लगता है कि हम इस उगते सूरज की भांति रोज एक सवेरा देखेंगे , हम चाँद सितारों की तरह नभ में आते जाते रहेंगे कृष्ण और शुक्ल पक्ष की तरह से
जिस व्यक्ति को हम अपने चार कंधों पर छोड़ कर आए थे , अपने आंसुओं की समिधा में जलाकर आए थे - वह शख्स हमारी स्मृतियों से विलोपित होने लगता है, धीरे-धीरे हमारा दुख कमतर होते जाता है और हम उस व्यक्ति की मौत का दुख बहुत कम मनाने लगते हैं , जीवन के किसी मोड़ पर अचानक भूला हुआ यह सारा पहाड़ नुमा दुख एक ज्वालामुखी की तरह से फूटता है और लगता है कि बस आज सब कुछ बाहर आ जाना चाहिए और स्मृति पटल पर आहिस्ता आहिस्ता वे सारे चलचित्र चलने लगते हैं जो जीवन की भाग दौड़ में कहीं लुप्त हो गए थे
1985 में पिता स्थानांतरित होकर देवास आए, पहली बार माँ बाप साथ रहने लगे और हम तीनों भाई - जो युवावस्था में आ गए थे, को एहसास हुआ कि परिवार क्या होता है, मां-बाप दोनों की पारिवारिक जिम्मेदारियां खत्म हो गई थी और हम तीनों के प्रति वे ज्यादा जागरूक और जिम्मेदार हो गए थे; उनका पूरा ध्यान हमारी पढ़ाई, संस्कार , ट्यूशन और देखभाल में जाता- सुबह से दोनों नौकरी पर चले जाते और शाम को घर आ जाते थे , हम लोग अच्छे से पढ़ाई कर रहे थे, यारी दोस्ती निभाते और जीवन के अच्छे दिन बिता रहे थे - अचानक पिताजी बीमार रहने लगे और फिर जो अस्पताल, जांच और भर्ती होने का सिलसिला चला - लगातार 4 साल तक, वह चलता ही रहा , देवास इंदौर , देवास इंदौर - बस यही रह गया था और हमारा घर मानो एक वार्ड बन गया था - जहां चारों तरफ दवाइयों का साम्राज्य था , डॉक्टर की पर्चियां तैरती रहती थी और अस्पताल की खुशबू घर के कोने कोने में समा गई थी
पिता कमजोर हो रहे थे, मां उनकी हिम्मत थी और हम लोग यानी तीनों भाई उनकी आंखों की रोशनी थे , शक्कर और ब्लड प्रेशर कम होने का नाम नहीं लेते थे और इस शक्कर की बीमारी ने उनकी आंखों को अंधेरों में धकेल दिया था , इंदौर की एक लेडी डॉक्टर ने पहली बार उनकी आंखों में लेजर किरणें डाली थी - गीता भवन इंदौर के पास डॉक्टर कालेवार के चैंबर के बाहर खड़ा हुआ मैं और मां उनकी चीखें सुन रहे थे पर कुछ कर पाने में असमर्थ थे हमें लग रहा था कि काश इस पीड़ा में हम कोई हिस्सेदारी बंटा पाते पर हम पीड़ाओं को बांट नही सकते सिर्फ सहानुभूति या समानुभूति से महसूस ही कर सकते है, आज जब वो चीखें मेरे भीतर हुलस रही है तो मैं अकेले कमरे में और जोर से चीखता हूँ, घबराकर रात को उठ जाता हूँ छत पर निकल आता हूँ सामने गुलमोहर के लाल फूल मुझे डरावने लगते है मानो वे सब मेरे ऊपर गिर जाना चाहते हो , गमले में सूख गए पौधों की डगाल मुझे जलती सी दिखाई देने लगती है - हांफता हूँ और बैठ जाता हूँ, आसमान में पिता दिखाई देते है रोज और पूछते है 27 मई में अभी कितने दिन बाकी है
वे ठीक नही हुए, फिर उन्हें क्लॉथ मार्किट के अस्पताल में भर्ती किया गया - एक डेढ़ माह रहकर लौटे थे , सारे रिश्तेदारों ने बहुत साथ दिया - इतनी दूर दोनो समय का खाना लेकर आना, जांच , डॉक्टर से बातचीत करना, टेस्ट्स के लिए यहां वहां ले जाना, और फिर निर्णय लेना , हम लोग सिर्फ देखते और उनके हाथ पकड़कर बैठे रहते, जब जब देवास घर आते तो कहते मैं ठीक हो गया हूँ बस दो चार दिन में आफिस जाना शुरू करूँगा , सब ठीक हो जाएगा - तुम लोग पढ़ाई पर ध्यान दो
घर मे 51 वर्ष ग्यारह माह का आदमी चलता और टकरा कर गिर पड़ता कभी कभी, उन्हें सहारा लेने की आदत नही थी, छोटा भाई उनका सबसे लाड़ला था जो हरदम उनके संग साये के तरह से चिपका रहता और हाथ पकड़कर बाथरूम या रसोई ले जाता , घर के बरामदे में अपने गुलनोहर के नीचे बैठे रहते एक कुर्सी पर और पूछते रहते - कौन आया, कौन गया , पोस्टमैन आ गया क्या , अखबार में क्या आया है आज , मैं पेशाब की जांच करता तो कहते "कल तो कुछ खाया नही था फिर शक्कर कैसे बढ़ी हुई निकली - अपनी माँ को मत बतलाना कि आज फिर बढ़ गई थी वो शाम को स्कूल से आएगी तो सुनकर परेशान होंगी" मैं चुपचाप परखनली फोड़ देता
माँ को भी सब मालूम था, वह क्या करती बस डॉक्टर ही खुदा था ; मैं बहुत छोटी उम्र में यह सीख गया था कि शक्कर की बीमारी मीठा खाने से नही - तनाव से होती है, वे चिंतित थे कि सिर्फ माँ की तनख्वाह से घर की किश्त, घर का खर्च, हम तीनों की पढ़ाई और शादी ब्याह में लेनदेन कैसे होगा - जो हर माह कही ना कही होती ही रहती थी, जाना भी जरूरी होता - चिंता में बैठे सफेद पायजामा और बनियान पहने पांव में स्लीपर डालकर आंखों पर काला चश्मा लगाए पिता की स्मृति अचानक उभरती है और आंसूओं से धुँधली पड़ती जाती है मैं इन दिनों जिस दर्द से गुजर रहा हूँ वह असहनीय है - आँखें कमजोर हो गई है पर मैं इलाज नही करवाना चाहता क्योकि मुझमे ना सहन शक्ति है पिता की तरह - ना मैं चीख सकता हूँ और ना इन दीवारों में अपनी चीखों के क्रंदन को दर्ज करना चाहता हूँ, एक घर मे तीन तीन मौतों के बाद और दारुण्य का बयां होना एक श्राप है
मैं जार जार रोता हूँ क्योकि इसके सिवा मेरे पास कुछ और है भी नही - ये वही दिन थे जब वो अस्पताल में थे सन 1989 का वर्ष था और हमें लग रहा था कि वे फिर घर आएंगे; अस्पताल में वे दिन रात रट लगाए थे कि घर ले चलो , पिता ही नही - माँ और छोटा भाई भी अपने आखिरी दिनों में यही कहते रह गए कि घर ले चलो सम्भवतः वे अपने पसीने से बनाये ईंट गारे के मकान को मौत के पहले अपनी स्थाई स्मृतियों में जगह देना चाहते हो या अपने प्राण इसी वास्तु में से गुजार देना चाहते हो आशीर्वाद देकर कि यह घर , यह जगह अमर रहें और कभी खत्म ना हो - परन्तु मैं तीनों में से किसी एक को भी अंतिम समय मे घर नही ला पाया और मेरे लिए यह जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है - इसलिए मैंने तय किया है कि मैं अपने समय मे कही नही जाऊंगा और इसी घर मे रहूंगा , प्राण त्याग दूँगा और शरीर भी किसी मेडिकल कॉलेज को दान कर दूँगा - ताकि इसको ना मोक्ष मिलें , ना कोई छूट और बरसों यह शरीर यूँही सड़ता - गलता रहें और टुकड़ो टुकड़ों में खत्म हो
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रात है डेढ़ बजे रहें है , परसो एक ऑपरेशन हुआ - एक आज है दोनो परिचित ही नही रिश्तेदार है, सोचता हूँ कि संसार के इसी धरा पर कितने अस्पताल होंगें, कितने मरीज रोज भर्ती होते होंगे, कितने ऑपरेशन रोज होते होंगे और कितने सफल होते होंगे - हम लगभग छह अरब लोग इस धरती पर हमेंशा रहते है जीवितों की संख्या में पर जो लोग अग्नि में भस्म होकर खत्म हो गए या जमीन के नीचे दफ़ना दिए गए - उनकी सँख्या ज़्यादा नही क्या
अपने ही नातेदारों में पचास से अधिक मौत तो मैंने देख ली , सैंकड़ों मित्रों , परिचितों और मोहल्ला दर मोहल्ला हुई मौतों का साक्षी हूँ , दर्जनों जनाज़ों में शिरकत की है - मरता इंसान ही है वह किसी का भी सगा हो पर जहां देह के पिंजरे से मुक्त हुआ वह "है से था" बन जाने में एक क्षण देरी नही करता
किसे पता था कि पिता आज की रात यानी 27 मई 1989 की भोर में साथ छोड़ देंगे, मैं एक शिक्षक प्रशिक्षण में था इंदौर के मोती तबेला मे कन्या महाविद्यालय में, 25 को ही अस्पताल में उनसे मिलकर गया था, कोलकाता से नबारुण भट्टाचार्य आया था जो वहाँ विवि में पढ़ाता था, हम लोग 26 की देर रात तक उस दिन के प्रशिक्षण पर बातचीत और अगले दिन की तैयारी कर रहें थे, अचानक किसी ने नीचे से आवाज़ दी कि कोई अजय मानुरकर आये है लेने
रात के डेढ़ बजे - समझ नही आया तो बाहर जाकर पूछा क्या हुआ , अजय ने कहा चल थोड़ा अर्जेंट है; पता नही पांव में स्लीपर डालकर उसकी टीएफआर लूना पर बैठकर नंदानगर आ गया - पूछा तो बोला पिता जी की छुट्टी हो गई है - मैं खुश था चलो अब घर जाएँगे - बाहर दो चार लोग खड़े थे, अंदर निपट सन्नाटा था और आंगन में ही बुआ, उसके पति , दूसरी बुआ और उसके पति बैठे थे
दोनो भाई - बड़ा और छोटा, देवास में थे, शायद दादी उनके पास थी - माँ ने देखा तो खड़ी हो गई और मेरा हाथ खींचकर एक जमीन पर पड़ी चादर से ढकी लाश के पास ले गई , कुछ समझ नही आ रहा था, मैं चिंता में था कि मेरा सामान होस्टल में है, नबारुण के साथ सुबह क्लास लेनी है और पिता को कल शाम अस्पताल जाकर देखना है - पर माँ , बुआ और सब लोग यहाँ है तो अस्पताल में कौन है उनके पास, और कोल्हापुरी चादर से ढककर किसको रखा है पलंग से नीचे उतारकर
माँ ने एक बार जोर से झिंझोड़ दिया और चीखते हुए बोली कि "संदीप पप्पा गए हम सबको छोड़कर ...." मैं हैरान था क्यों , कैसे पर क्या कहता - अभी परसो ही तो उन्हें कहा था कि बस और दो चार दिन आपके जन्मदिन यानी 3 जून को एक सरप्राइज दूँगा - बहुत बार पूछने पर उनसे कहा था कि मेरे एम ए अंग्रेजी साहित्य का परिणाम आने वाला है , वे बोले थे पास हो जाएगा चिंता मत कर , और यह लाश
माँ ने बताया कि कल शाम ही डॉक्टर ने छुट्टी दे दी थी, कहा था ठीक हो गए है अब घर ही ले जाओ, बुआ के यहां सामान पड़ा था सोचा आज यही रुकते है कल सुबह निकल जाएंगे, रात जो बाहर सोए थे, एक बजे के करीब उठे दिखता नही था - दीवार से टकराने की आवाज आई तो मैं उठी - उल्टी की , पूछा तीनो बच्चे कहां है, बस मैं बता ही रही थी कि उनकी आंखों में चमक आई और वे गिर पड़े - सबको उठाया पड़ोस का डॉक्टर भी चेक कर गया है - अब सब कुछ खत्म हो गया है , अब तू हिम्मत रख, घर चलना है
पिता जा चुके थे हमेंशा के लिए - सब कुछ खत्मकर मोहमाया छोड़कर, हमें हिम्मत देते हुए एक शख्स हिम्मत ही नही जीवन से भी हार गया था
खिड़की से बाहर मुझे आसमान दिखता है, एक टुकड़ा धरती का, सामने गुलमोहर के लाल फूल और कमरे में मद्धम सी रोशनी है , यूं तो पूरे आसमान में चांदनी बिखरी होगी पर मेरे हिस्से में बहुत थोड़े सितारे दिख रहे है, कृष्ण पक्ष की रात है , कभी कोई पक्षी फर्र से उड़ भी जाता है , कोई चिड़िया गुलमोहर पर इतनी रात को फुदकने भी लगती है, धरती घूम रही है और मुझे दिखाई देने वाला धरती का टुकड़ा हर पल रंग बदल रहा है - अपने हिस्से के आसमान को मैं आज जी भर कर ताकना चाहता हूँ और इसे अपने भीतर बसा लेना चाहता हूँ क्योकि यह तीस साल बाद मुझे पिता का अक्स दिखा रहा है
समाहार 
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मैं ज्यादा आसमान नही चाहता, बस खिड़की से दिख रहे आसमान के टुकड़े को लेकर इस धरती के हिस्से पर बनाये हुए पिता के मकान में सदा के लिए सो जाना चाहता हूँ , मैं अब पिता को याद भी नही करना चाहता हूँ - क्योकि अब मैं आज पिता की उम्र के बराबर हो गया हूँ और तीस बरस के कालांश में जब वो कभी याद नही आये तो अब उन्हें याद भी नही आना चाहिए, उनकी स्मृति ज़ेहन में बनी है और मैं इसे बिसरा कर भंगुर नही करना चाहता, देह से मुक्ति को बेचैन मैं , उनकी जो आदमकद प्रतिमा मेरे भीतर है - एक मनुष्य के जीवन के सुख - दुख, संघर्ष और सफलताओं के ताने बाने में बुनी जो आकृति है - मैं उसमें समां जाना चाहता हूँ और इस विशाल आसमान को दुनिया के छह अरब में से उन लोगों के लिए छोड़ जाना चाहता हूँ जिनके पिताओं के कोई घर धरती के किसी छोर पर नही है , परंतु आसमान खिड़कियों से बड़े है , उन तमाम पिताओं के बुत इस गुलमोहर के चटख लाल रंग से भर देना चाहता हूँ कि यह लाल खूनी रंग आने वाली नस्लों में अबाध रूप और उद्दाम वेग से बहता रहें और किसी को पिता को याद करते हुए गम ना हो , मैंने अपना बीज तो यहां नही रोपा है पर मेरी यह अनंतिम इच्छा है कि हर शख्स का बीज यहां पुष्पित हो, पल्लवित हो - मेरे पिता सा ना सही पर अपने आपमें पिता शब्द के अर्थ का होना सिद्ध करें
मैं किसी तारे सा चमकता दूर से बीज को पिता बनते देख मुस्कुराता रहूँगा 
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अंत में एक कविता जो 27 मई 1990 को नईदुनिया, इंदौर में छपी थी
"आखिरी दिनों में पिता"
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आखिरी दिनों में बिना आँखों के भी
जिंदगी को पढ़ -समझ लेते थे
कापते हाथो से भी बताई जगह पर
हस्ताक्षर कर देते थे
छुट्टी की अर्जी
मेडिकल के बिल
बैंक का लोन
ज्वाइंट अकाउंट का फ़ार्म
आखिरी दिनों में पिता की
आँखें काम नहीं कर पाती थी
मैं, माँ भाई उन्हें देखते थे
और पिता देखते थे हमारी आँखों में आशा, जीवन, उत्साह

अस्पताल के कठिन जांच प्रक्रिया
लेसर की तेज किरणे
पर आँखों का अन्धेरा गहराता गया
पिता
तुम आखिरी दिनों में कितना ध्यान रखते थे हमारा
स्कूल से आने पर पदचाप पहचान लेते थे
हमारे साथ बैठकर रोटी खाते
और हाथों से टटोलकर हमें
परोसते
माँ के आंसू की गंध पहचानकर
डपट देते थे माँ को

पिता का होना हमारे लिए 
आकाश के मानिंद था
ऐसा आकाश जिसके तले
हम अपने सुख दुःख
ख्वाब, उमंगें
उत्साह और साहस
भय और पीड़ा
भावनाए और संकोच
रखकर निश्चित होकर
सो जाते थे

पिता हर समय माँ से 
हमारे बारे में ही बाते करते थे
हमारी पढाई, हिम्मत
तितली पकडना
पतंग उड़ाना
कंचे खेलना
बोझिल किताबे
टयुशन और परीक्षाए
नौकरी और शादी

माँ कुछ भी नहीं कहती
तिल-तिल मरता देख रही थी
घर से अस्पताल
अस्पताल से प्रयोगशाला
प्रयोगशाला से घर

एक दिन रात के गहरे अँधेरे में
आँगन की दीवार को
पकड़ कर खड़े हो गए
पिता की ज्योति लौट रही थी
हड्बड़ाहट सुनकर
माँ जाग गयी थी
एक लंबी उल्टी करके गिर गए थे
पिता

माँ कहती थी
आखिरी समय में
नेत्र ज्योति लौट आई थी
पिता तुमने कातर
निगाहों से माँ को देखा था
माँ के पास हममे से किसी को
ना पाकर तुम्हारी आँखों से
दो आंसू भी गिरे थे
लेसर की किरणे
मानो उस अंधेरी रात में
आँखों में चमक रही थी
जिंदगी भर आंसू पोछने वाला आदमी
उम्र के बावनवे साल में आंसू बहा रहा था

लोग कहते है वो खुशी के
आंसू थे- ज्योति लौट आने के
मैं कुछ भी नहीं कहता
क्योकि बाद में मैंने ही तो
आँखे बंद करके रूई के फोहे
रखे थे

पिता - तुम सचमुच हमें ज्योति दे गए

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