जुगन जुगन के हम जोगी || ●●●●● सामाजिक नागरिक संस्थाओं के काम का एक समय होता है - जब वे फील्ड में काम करती है, लोगों से जुड़कर, समस्याओं को समझकर और बड़े काम तथा पैरवी करके वे जनसुमदाय के लिये वृहद काम करती है, इनके काम से नीतियों और क्रियान्वयन पर बड़ा असर होता है इसमें कोई शक नही, पर एक समय बाद संस्थाओं में सिर्फ़ और सिर्फ़ जमे और बने रहने की होड़ लग जाती है, हर तरह के काम के लिये ये फंड जुगाड़ने में लग जाते है - शौचालय बनाना हो एड्स रोकने के लिये कंडोम प्रमोशन करना हो और फिर एक भयानक किस्म का दुष्चक्र आरम्भ होता है कि यह मेरा काम नही, यह उसका काम है, यह मुद्दा हमारे फ्रेम वर्क में नही, यह करने से एफसीआरए पर असर पड़ेगा और इस व्यक्ति या कार्यकर्ता होने से काम बिगड़ेंगे आदि आदि, एक दिन सारे कॉमरेड लोग किसी बिरला या जमनालाल बजाज परिसर में करोड़ो का दफ़्तर बनाकर विलीन हो जाते है इसलिये मुझे दो बात समझ आती है कि एक - संस्थाओं को एक अवधि के बाद फेज़ आउट हो जाना चाहिये, अपना सर्वस्व समुदाय या दूसरी संस्थाओं को देकर उस जगह या फील्ड से अलग हो जाना चाहिये - ताकि ठहरे हुए तालाब के पानी को सड़ने के बजाय वहाँ
"कि मैंने रतन टाटा को देखा है...." 2006-07 में मैं भोपाल में द हंगर प्रोजेक्ट में काम करता था, शिक्षा में काम करके आया था - स्कूल में शिक्षक, आर्मी स्कूल में प्राचार्य, एकलव्य में नवाचार आदि का लम्बा अनुभव था, भोपाल वाला काम जम नही रहा था - तो शिक्षा का काम खोज रहा था टाटा ट्रस्ट ने झारखंड के खूँटी जिले में काम आरम्भ किया था तो वे कोई अनुभवी व्यक्ति खोज रहे थे, मैंने आवेदन किया तो पहले दो - तीन राउंड में फोन पर बातचीत हुई और बाद में इंटरव्यू के लिये बॉम्बे हाउस मुम्बई में बुलावा आ गया भाई हिमांशु का दफ़्तर वही था, लोकल में घूमते हुए हम वहाँ पहुँचे, हिमांशु मुझे छोड़कर अपने काम पर निकल गया, बॉम्बे हाउस में हम 3, 4 लोग बैठे थे, पैनल में इंटरव्यू लेने वाली पदमा सारँगपाणी ट्रैफिक में कही फँस गई थी अचानक हलचल हुई और रतन टाटा जी ने प्रवेश किया , एक - दो लोगों ने उनका अभिवादन किया और दफ्तर के बाकी लोग अपना काम करते रहें, हमें देखकर रूके और बोले - "आप लोग...? हमने कहाँ इंटरव्यू है..... "ओह, फिर वही हमारे साथ बैठ गये... कहाँ से, क्या करते हो, किन समुदायों के साथ काम करते है ?