Skip to main content

Khari Khari, Drisht Kavi and other posts from 21 to 30 March 2024

लोमड़ी के प्रमेय - 1
•••••
जंगल में लोमड़ी की कोई औकात नही थी, लोमड़ी का स्वभाव ही तीखा और वीभत्स था, लोमड़े को अवैध रूप से छोड़कर अपना साम्राज्य बनाने की कोशिश में थी - पर ना हाथी, ना शेर, ना नीलगाय, ना जंगली सूअर और ना तोता, मतलब कोई घास नही डाल रहा था, सो हर समय भिन्नाई रहती और जंगल को नष्ट करने की योजना बनाते रहती
आख़िर उसे समझ आया कि जातिवाद से बड़ा हथियार कोई और हो नही सकता - उसने एक गधे को साधा और अपने हुस्न के जाल में फाँसकर पहले प्यास बुझाई फिर उसे शेर, हाथी, हिरण, बारहसिंघा, बाज, उल्लू, तोते, चिड़िया और यहाँ तक कि चींटियों के ख़िलाफ़ भड़काया कि ये ऊँची जाति के जानवर तुम्हे उपेक्षित करते है, समय आ गया है कि तुम भी महान बनो, सत्ता हासिल करो और राज करो रामराज लाओ जंगल में
इस गधे को प्रसन्न करने के लिये उसने कई तरह के शिकार किये - मैना, फ़ाख्ता, मुर्गा, गिलहरी, मछली, मगर, आदि को पकड़ा और पकाया , महुआ की शराब और पेड़ से उतरी ताड़ी के साथ गधे को खिलाया - ये सब दिव्य व्यंजन थे गधे के लिये, सो गधा लोमड़ी का हो लिया - बस लोट लगाते हुए गधे ने सब बड़े जानवरों को चुनौती देना शुरू कर दिया
जब धोबी को गधे और लोमड़ी के प्रेम प्रसंग और चुनाव के बहाने सत्ता हथियाने के "लोमड़ीस्वप्न" का पता चला तो धोबी ने गधे को हकाल दिया, इस तरह गधा बेरोजगारी झेलने को अभिशप्त हुआ, पर लोमड़ी पर उसका प्रेम अगाध था
एक दिन दोनो ने मिलकर जंगल में पार्टी कार्यालय खोला और चुनाव की घोषणा कर दी, गधा तो गधा ही था, लोमड़ी ने फिर खेल खेला और शेर से प्रेम की पींगे बढ़ाकर,हाथी को भाई बनाकर, अपनी जात के नेता को साधकर ज़मीन हथिया ली, चुनाव जीत गई, एक बड़ा संस्थान खोल लिया और समाज की अध्यक्ष बन गई, जंगल की मुखिया और शेर की प्रेयसी बन राज करने लगी एवं गधे को उसके हाल पर छोड़ दिया
बेचारा गधा फिर से ढेंचू - ढेंचू करके अपना दर्द ज़माने में आज भी बांट रहा है
लोमड़ी हर युग का और हर क्षेत्र का परम और अंतिम सत्य है मित्रों
[इसका चुनाव, साहित्य या सामाजिक कार्य से कोई सम्बन्ध नही है]
***
अपनी इन 16 सम सामयिक कविताओं के बाद दो छोटी कविताएँ मेरे आद्य गुरू, जिन्होंने कविता का ककहरा सीखाया और विवि से पीएचडी करवाई, अब नौकरी भी दिलवायेंगें और जो इस कवि गोष्ठी के संयोजक है - उनके लिये और तीन छोटी कविताएँ प्रातःस्मरणीय अध्यक्षता कर रहें मेरे सर्जनहार और मेरी पत्नी के चाचा के लिये पेश करके अपना काव्य पाठ समाप्त करूँगा मित्रों, तालियाँ रूकना नही चाहिये
***
दो महत्वपूर्ण बातें जो समझ आ रही है -
◆ इस समय सबसे शक्तिशाली सरकार बेहद हताश, निराश और अपराध बोध से ग्रस्त है क्योंकि 10 साल के कार्यकाल, देश बेचने से लेकर अवैध धंधे, चंदे और निरंकुशता के सारे कारनामे सामने आ गए है और अब जो विशुद्ध मूर्ख होगा या दिमाग़ से एकदम पैदल वही इनके बचाव में आयेगा - युवाओं से लेकर महिलाएं और अंधभक्त, मजदूर, साधु संत, शंकराचार्य आदि सब समझ चुके है कि गुजरात के दो निहायत ही धंधेबाज आत्ममुग्ध नालायक लोगों ने देश ही नही हमारे पूरे धर्म, संस्कृति और परम्परा के साथ इस महान देश की तहज़ीब को भी दस सालों में नष्ट कर दिया है - सावधान रहिए, यह चुनाव आख़िरी मौका है और इसके बाद आपके सामने ना विकल्प होगा ना अवसर
◆ हिंदी कविता का यह पतन काल है जिसकी डोर कुछ युवाओं, अघोरी मांस भक्षक किस्म में बूढ़े, चापलूस और मक्कार, विवि और महाविद्यालयों के अपढ़ - कुपढ और कुंठित प्राध्यापकों, हिंदी में सेटिंग से आये शोधार्थियों, भयानक किस्म के जातिवाद एवं सांप्रदायिकता से ग्रस्त बेरोजगार युवाओं, अश्लील और नंग - धड़ंग फ़ोटो चैंपकर बूढ़ी तितलियों को रिझाने वाले पूंजीपति बाप पर आश्रित कवियों और अंत में निहायत ठिल्वे किस्म के लोगों के हाथ में है - ये लोग ना साहित्य के है, ना कविता के - बल्कि ये समाज में एक इंसान होने लायक भी नही है , न इन्हें पढ़ना है और ना समझना है, कल करीब 200 लोगों को अपनी सूची से हकाला था - आज 500 लोगों को बाहर फेंकूँगा जो अव्वल दर्जे के धूर्त और मक्कार है
____
जिसे बेसिक समझ नही है समाज, राजनीति या साहित्य की वे लोग यहाँ कमेंट करके अपने मानसिक दीवालियेपन का प्रदर्शन ना करें
***
अल्बैर कामू की एक कथा है कि एक बेटा कई वर्षों से प्रवास में रह रहा है। दशकों से घर नहीं लौटा। उसे पता लगता है कि उसकी माँ और बहन एक मोटल चलाते हैं, और जो भी धनी राहगीर वहाँ रुकता है, उसकी हत्या कर लूट लेते हैं।
वह स्वयं जब वहाँ पहुँचता है, तो उसकी माँ पहचान नहीं पाती। वह मसखरी के इरादे से अपना नाम बदल कर एक रात रुकता है, कि देखें! क्या होता है। वह अपनी पत्नी को दूसरी जगह ठहराता है। जब रात होती है, उसे भी उसकी माँ और बहन मिल कर मार देते हैं।
इसका डीप मीनिंग चाहे जो भी हो, मगर प्रवासियों को गाहे-बगाहे शक्ल-सूरत दिखाते रहनी चाहिए। वरना कंफ्यूजन में…
***
"रंगमंच दिवस" पर सबको छोड़कर सिरिफ एक कूँ बधाई, सभ्यता के इतिहास में ऐसा नौटँकीबाज पैदा इज़ नई हुआ
आय लभ हिम
***
जब अपने मिलते है
______
क्या शानदार दिन, आज दिनभर सर्वश्री हरि भटनागर, प्रकाशकान्त और सुनील चतुर्वेदी जी के संग कहानी - उपन्यास, सम सामयिक परिदृश्य और कहानी के इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर बात करते हुए बीता और अभी सुखद खबर मिली कि देश के मूर्धन्य चित्रकार, मूर्तिकार और अग्रज जिनसे स्व गुरूजी विष्णु चिंचालकर के बाद कला का अर्थ और होना सीखा - वे देवास है, बस फिर क्या था दौड़कर मिलने पहुँच गया


एक लम्बे समय बाद मिलना हुआ अपने शहर में घर के पास, पिछले एक हफ़्ते से वे इंदौर में युवा छात्रों के साथ अपनी कला और सिरेमिक आर्ट आदि पर काम कर रहे थे और कला की बारीकियों से परिचित करा रहे थे, मैं बाहर था सो ना मिल पाने का अफसोस हो रहा था, पर अचानक कुछ यूँ संयोग बना कि वे एकदम घर के पास ही मित्र के यहाँ आये और फोन किया, बस अपुन पहुंच गए और फटाफट कार्यक्रम बना डाला कल का
भारत भवन भोपाल के वरिष्ठ कलागुरू और ख्यात व्यक्ति Devilal Patidar जी सहज, सरल और चमत्कृत व्यक्तित्व के धनी है, एक बड़े कलाकार और उत्कृष्ट व्यक्तित्व होने के बाद बाद भी स्नेहिल है - तपाक से गले लगे और खूब देर तक बातें होती रही


अब सार्वजनिक सूचना यह है कि वे कल दोपहर तक ही देवास में है, हम सब उनसे कल "अभिरुचि ललित कला अकादमी एवं शोध संस्थान संस्थान" - 87, गंगा नगर, देवास में दोपहर 12.00 पर मिल सकते है

***
तो दोस्तों, मैं आज अंत में दो छोटी कविताएँ पेश करूँगा जो रीतिकाल और वीरगाथा काल के सम्मिश्रण पर भोजपुरी और अवधि के स्वर्णिम युगल युग की देन है, कालेज में पढ़ते और पढ़ाते हुए मैंने द्विवेदी, निराला, चंपालाल और युवा तेजस्वी कवि, मेरी पाँचवी और पूर्व प्रेमिका - जो अब मेरी धर्मपत्नी है, को लेकर जो कविताएँ लिखी थी - उन्हें इस बारह पृष्ठ के अति संक्षिप्त आलेख वाचन के बाद प्रस्तुत करूँगा
मेरा आलेख नई कविता के पाथेय विषय पर "सन 1740 से 1990 तक के कवियों की वैश्विक दृष्टि और सौंदर्य शास्त्र के पैमानों पर कविता में भटकाव" पर विहंगम टिप्पणी है, आशा है आप इस आलेख में वर्णित सभी सन्दर्भो की ओर ध्यान देंगे और तालियों से मेरा मनोबल बढ़ाएंगे
बस तो लीजिये पेश है ...
------
फेंको साले पर अंडे, टमाटर ....
विश्व कविता दिवस
***
तो दोस्तों, मैं आज अंत में दो छोटी कविताएँ सुनाकर अपनी बात खत्म करूँगा, इसके पहले एक ग़ज़ल और चंद मुक्तक पेश है, इसके बाद एक गीत - जो अध्यक्ष महोदय को समर्पित, एक नज़्म आप झुमरी तलैया के सुधी श्रोताओं के लिये
बस तो लीजिये पेश है ...
------
फेंको साले पर अंडे, टमाटर ....
विश्व कविता दिवस
***


आप सब बातचीत के लिए आमंत्रित है

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही