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फरवरी इश्क है

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दिलफेंक युवा था, खूबसूरत और लंबा चौड़ा, प्रदेश के छोटे जिले से आया था राजधानी पहली बार नौकरी करने, अच्छी - भली नौकरी थी उसकी और इश्कबाजी में हमेशा अव्वल रहता था, जब भोपाल आया तो मुझे बताया कि एक दफ्तर की लड़की से प्रेम हो गया, मेरे घर आने लगे, कमरे की चाभी ले जाता जब मै दफ्तर में रहता तो, दर्जनों बार मैंने दोनों को देर रात खाना बनाकर खिलाया था, फिर अचानक उसका लड़की से झगड़ा हुआ, जीवन में कितनी लड़कियों से उसने प्रेम किया होगा, नही मालूम - मेरे देखते - देखते ही भोपाल में यह चौथी लड़की थी
अंत में शादी किसी और से हुई, तीन माह में ही झगड़ा हुआ तो बीबी ने दहेज कांड में फँसाकर मुम्बई की आर्थर रोड जेल में डलवा दिया, बीबी किसी अठारह उन्नीस साल के लड़के से फंसी थी - ऐसा उसने बताया था, एक दिन आकर दोनो ने पति परमेश्वर को खूब पीटा और दहेज की रिपोर्ट लिखवाकर जेल में डलवा दिया, लगभग चार साल बाद छूटा
फिर तीसरी लड़की से शादी की और बड़े अनजान शहर में जाकर बस गए दोनो और काम पर लग गए शरीफों की तरह
इधर उस लड़की का ब्याह हुआ जो भोपाल में मेरे घर उसके साथ आया करती थी, लड़की का ब्याह पहली बार वाले अपने पुराने आशिक के साथ हुआ - जो एक ज़माने में उसे छोड़ गया था, जाति एक थी, दहेज भी दिया खूब और धूम धाम से शादी हुई
संयोग देखिये कि दोनों पूर्व प्रेमी अपनी बीबी और पति के साथ इस समय दोनो एक ही बड़े शहर में रहते है और दोनो के छोटे बच्चे है
कभी टकराते होंगे तो क्या बात करते होंगे - मेरे घर हुई मुलाकातों की, झगड़ों की या भोपाल शहर के शाहपुरा झील पर घूमते हुए उन लम्बी ऊंघती दोपहरियों की - जो कभी सांझ में नही बदली
"असँख्य सुबहों का सूरज" कहता हूँ उसे मैं और एक कहानी मुकम्मल करना बाकी है अभी उसकी मेरी साँसों का सूरज अस्त होने से पहले

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अड़ोस पड़ोस के युवाओं का प्यार अक्सर असफल होता है पर प्यार होता जरूर है और कॉलोनियों में तो यह इतनी शिद्दत से होता है कि कहना मुश्किल है क्योंकि कॉलोनी किसी तंग बस्ती से कम नही होती
दोनो साथ बड़े हुए थे पर किस्मत जैसी होती है या वो फ़िल्म राँझना का डायलाग था ना कि "अपने इश्क को डॉक्टर - इंजीनियर ले जाते है", इनका भी प्रेम आख़िर असफ़ल हुआ और दो दिशाओं में दो प्रेमी विदा हो गए - जीवन, तमाम किंतु - परन्तु के बाद भी अमूर्त कल्पनाओं की विरासत है - सब कुछ सम्भव है, बस प्यार का धड़कना कही ना कही जरूरी है, अगर एक कतरा भी बुझे शोलों में दहक रहा तो कायनात आपको रुखसत हुए प्रेमी से मिला देती है
दोनो को विदा हुए दो - तीन साल हुए नही और लड़के की दुल्हन किडनी फेल होने से गुज़र गई और लड़की के पति से उसकी पटी नही - खूब मारा पीटी होती थी ससुराल में और एक दिन आखिर पति भी गुज़र गया - दोनो एक बार फिर निपट अकेले रह गए भवसागर में
लड़की माँ के घर आ गई, लड़का कुँवारा हो गया था फिर से, कॉलोनी में लौटते ही दोनो के बीच ताका - झांकी हुई तो पुराना इश्क फिर परवान चढ़ा और दोनो के अभिभावकों ने शादी करवा दी और पुराने प्रेमी फिर आ मिले और जीवन नैया खेने लगें
यह कोई प्रेमरोग की कहानी नही, पर असल में पेंच बहुत थे, लड़की अपने साथ बेटा लेकर आई थी - जो उसने माँ को गोद दे दिया और पुराने आशिक के साथ जीवन बसर करने लगी
कहानियाँ खत्म नही होती, लड़की की माँ ने नाती को ऐसा अपनाया कि बेटे से ज़्यादा माना और उसका सब किया, पूरी प्रॉपर्टी उसके नाम कर दी और सबसे मुख मोड़ लिया - जीवन पटरी पर था कि अचानक लड़की ने अपने लड़के से माँ की उस प्रॉपर्टी से हिस्सा माँगा जो उसकी माँ ने अपने ही बेटे के नाम कर दिया था
प्रेम कही पूरा होता भी है तो अपने अवशेष यूँ छोड़ जाता है जैसे बड़े तूफान के बाद समुद्र का अरबों टन कचरा या बाढ़ के बाद उतरी नदी का मैला जो जीवन भर सिर्फ़ कहानियों में ही बखान किया जा सकता है

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समय की खूबसूरती यह है कि यह एक दिन गुज़र ही जाता है और बाद में लगता है कि यह कुछ नया नही था, उस क्षण में भले ही लगता हो कि यह मेरे साथ हो रहा है या उसके साथ ऐसा क्यों हुआ और धीरे-धीरे जब जीवन सामान्य अवस्था में लौटता है और समय गुजर जाता है तो लगता है कि समय के इतिहास में हर सफर के सफ़े पर ऐसी लाखों कहानियाँ दर्ज है
भाइयों की शादी में छोटे भाई और उनके दोस्तों की मौज-मस्ती का अपना ही मजा है और ऐसे में बड़े भाई की शादी में होने वाली भाभी की छोटी बहन और सहेलियों से छेड़छाड़ तो बहुत ही सामान्य बात है, दर्जनों क्या लाखों रिश्तें ऐसे ही बने है और लोगों ने निभाये भी है मरने तक इसी समाज में
असल में बात गंभीर तब हो जाती है जब भाभी की छोटी बहन से इश्क हो जाए और यह इश्क इस हद तक पहुंच जाए कि शादी तय हो जाए और दो बहने देवरानी और जेठानी हो जाती है - ठीक ऐसा ही हुआ उसके साथ जीवन में
बड़े भाई की बारात में जब गए तो भाभी की छोटी सगी बहन उसके मन को भा गई, जब भाभी घर आई तो दो साल के बाद भाभी को बताया गया कि उनकी छोटी बहन उसे दिल से पसंद है - फिर क्या था शादी की तैयारी होने लगी और एक दिन मुकर्रर किया गया
सब कुछ बढ़िया था, सब कुछ ठीक था, शादी के मंडप तन चुके थे - सारे लोग शादी वाले घर पहुंच चुके थे, सारे रिश्तेदार आ चुके थे - क्योंकि लड़की वालों को दूसरे शहर से आना था - इसलिए बेसब्री से इंतजार हो रहा था सुबह से ही, शाम को नियत समय पर शहनाई वालों ने आकर अपना शुभ मंगल गाना शुरू कर दिया था, ढोल पर अंदर बच्चे नाच रहे थे, महिलाएं सज रही थी, पंडित लग्न के लिए सामग्री इकठ्ठा करके वेदी सजा रहे थे, सप्तपदी पर चलने के लिए दूल्हा भी तैयार था, लड़की वालों की तरफ से भी काफी रिश्तेदार एडवांस में आ चुके थे - बस लड़की वालों की बस का इंतजार था
अचानक एक फोन ने सारे किये धरे पर पानी फेर दिया - काले चोगे वाले फोन हुआ करते थे, घुर्र -घुर्र की घंटी बजी और यह सूचना मिली कि जो दुल्हन थी - वह घर से भाग गई है, यह शोक किसी भूकम्प से कम नही था - सारे खाने को ढक दिया गया, बिजली की लड़ियाँ बन्द कर दी गई, बैंड वालों को लौटा दिया गया, मेहमानों को आग्रह किया गया कि वे शांति से भोजन करके जाएं, और लौटते में अपने गिफ़्ट वापिस ले जायें
भाभी अपने देवर से आंख नहीं मिला पा रही थी देवर जो दूल्हे के वेश में सज - धज कर खड़ा था, इतना बेजान हो गया था कि किसी सूखे खेत मे खड़ा बिजूका लग रहा था - किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था, जैसे श्मशान की वीरानी हो, सब कुछ शांत था, निस्तब्धता छाई थी हर जगह और हम सब निस्पृह से खड़े ताक रहे थे दोस्त को, शब्द भी साथ छोड़ देते है अक़्सर ऐसे मौकों पर
धीरे-धीरे शादी का हॉल खाली हो गया, दो-तीन साल तक यह मातम पसरा रहा, बाद में परिवार के पांच लोग और हम दो दोस्त उसकी शादी में शामिल हुए और गुजरात से लड़की ब्याह कर लाये - एक ऐसी जगह से जिसके बारे में किसी को अंदाजा भी नहीं था, बाद में किसी ने इस घटना का ज़िक्र नही किया किसी से
हाल ही में इसी दोस्त की बिटिया ने प्रेम विवाह किया - बिटिया की शादी में हम सब उपस्थित थे परंतु जब तक दूल्हा दरवाजे पर तोरण मारने नहीं आया तब तक हम सब की छातियाँ बुरी तरह से धड़क रही थी और जब बेटी विदा हुई तो दोस्त को बेटी का विदा होना उतना नहीं अखरा - जितना अपनी ना हो सकने वाली शादी पर दुल्हन का घर से भाग जाना अखरा था - दोस्त वह सब याद करके वह इतनी जोर से बुक्के फाड़कर रोया कि हमें संभालना मुश्किल हो गया - क्या यह पुराने और पहले प्रेम की ग्लानि थी या अपराध बोध
अब आश्चर्य नही होता क्योंकि इसी तरह की तीन और शादियां मैंने अपने जीवन में देखी - जिसमें ऐन वक्त पर लड़कियां भाग गई किसी के साथ और ये वे लड़कियां थी - जिन्होंने इन लड़कों से बेइंतहा प्यार किया था, लड़कों ने भले दूसरी शादी कर ली हो या अकेले रह गए हो पर वे आज भी किसी सूखे खेत में खड़े बिजूके से ज़्यादा नही अपने जीवन में

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पहाड़ से आये लोग अमूमन सीधे और दिल के बहुत साफ होते है, दिल से मिलते है, खूब खरी और साफ बात करते है और जितने सुंदर बाहर होते है उतने ही भीतर से भी होते है बस मैदान में आकर जब यहां के लोगों से व्यवहार करते है तो मैदानी लोगों की चालाकियां नही पकड़ पाते और किसी ना किसी बहेलिए के पिंजरे में फंस ही जाते है - फिर वो प्रेम हो या कुछ और व्यवहारगत बातों में, कर्ज़ हो या संपत्ति के लेनदेन में
बीएड करने सीधा पहाड़ से आया था मध्य भारत के बड़े शहर में, बहुत कौतुक से पढ़ने आया, पहाड़ी था - खूब ऊँचा, गोरा, लम्बे और बड़े पाँव जिसे उसकी सहपाठिन जो ठेठ मालवी थी, "खपरैल" कहती थी, पर लड़का बड़ा सहज था, पूरी कक्षा में सबसे रिश्ता और दोस्ती थी उसकी, इसी लड़की से इश्क की जब पींगे बढ़ाने लगा तो लड़की ने झिड़क दिया कि वह तो साध्वी बन गई है - जिस चाँद के प्यार में थी वह संसार त्याग चुका है, लिहाज़ा उसका अब ना दिन से वास्ता है और ना किसी सूरज से और तू तो जुगनू भी नही - मेरे से क्या इश्क निभायेगा -बेख़ौफ़ हो कहती कि "एक लम्बी अंधेरी रात ही उसका जीवन है"
संग - साथ पढ़ते हुए कब बीएड का वर्ष निकल गया मालूम नही पड़ा, लड़का था - जाहिर है शादी ब्याह करना ही पड़ता है , कक्षा के संगी - साथी यहाँ वहाँ यूँ बिखर गए जैसे वसन्त में परागण की क्रिया के दौरान पराग कण वातायन में बिखर जाते है, एक दिन लड़के ने मुझसे कहा कि उसे रेवा के तट वाली एक लड़की से मोहब्बत हो गई है - फ़िर क्या था, प्यार हुआ, आगे बढ़ा और लड़की रेवा के तट को छोड़कर अपनी सारी संपत्ति बेचकर बड़े शहर आ गई, शादी कर ली, चूँकि उसका कोई था नही - बस दोनो एक दूसरे के यूँ हो गए जैसे दो किनारों को किसी पुल ने जोड़ दिया हो और उस पर से चौबीसों घँटे मुहब्बत की बाढ़ गुजरती हो
एक दिन देर शाम इस लड़की का फोन आया कि - "भैया इन्हें अस्पताल में भर्ती किया है, अपने हाथ की नस काट ली है", दौड़ता हुआ गया मैं, पूछने पर उसने बताया कि वो पुरानी लड़की को भूल नही पा रहे और जोगन बनी वह दुष्ट अभागन हमारी गृहस्थी में आड़े आ रही है, इसी बात पर हमारी रोज़ लड़ाई होती है, कल मामला ज्यादा बढ़ गया था और जब मैं बाहर गई तो इसने नस काट ली
बात सम्हल गई, लड़का बच गया, गृहस्थी की गाड़ी फिर चल निकली, ये दोनों सेट हो गए, उधर जोगन में भी संसार के प्रति अनुराग जागा और वो और बड़े शहर में जाकर रम गई, छोटे कस्बे की लड़कियां जब आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाती है और किसी बड़े शहर में बस जाती है तो उनकी अभिव्यक्ति बहुधा प्रचंड स्वरूप में सामने आती है, जोगन संसार में आ गई, ब्याह कर लिया किसी रईस से और उसी बड़े शहर में मकान लेकर स्थाई हो गई, देवयोग से विदुषी थी तो सरकारी नौकरी लग गई आज दो लाख से कम तो क्या ही पगार होगा उसका
प्रेम का चक्कर कुछ अजीब लगता है, पिछले दिनों एक मित्र की यायावरी कथा श्रृंखला पढ़ रहा था तो जोगन और चाँद के प्रतिमान भी समझ आये और बरसो से जिन प्रश्नों के उत्तर मैं खोज रहा था - वे समीकरण धीरे - धीरे हल होते गए, सब कुछ साफ़ नज़र आने लगा, गांवों की वो शैक्षिक यात्राएँ जिनमे हम सड़कों पर देर रात बैठकर चाँद ताकते हुए गाने गाते थे, एक बड़े से पोस्टर पर वो कविता लिखती थी -"मत बांधो मुझे" और लड़के का रेवा तट की लड़की से इश्क, शादी, नस काटना, फिर जीवन में धँस जाना और भी बहुत कुछ, सबसे ज़्यादा आश्चर्य यह लगा कि दुनिया इतनी गोल और छोटी है और हम सब कैसे एक - दूसरे के साथ जुड़े हुए है
प्रेम है तो ही सब सम्भव है - सफलता और नैराश्य की दास्तान तभी हो सकती है जब जीवन में दारुण दुख हो, दर्द हो, "परिंदे" का नायक फ़िल्म में एक जगह कहता है ना कि -"जब तक दिल में दर्द नही उगेगा, मजबूती से - तब तक ग़ज़ल या गीत नही फूटेगा", आज खुशी इस बात की है कि सब अपने - अपने जीवन में ख़ुश है, समृद्ध है और एक सहज रिश्ता दोस्ती का बना हुआ है और यही शायद अंत भला सो सब भला वाली बात है

मुहब्बत ज़िंदाबाद

किसी सामाजिक उत्सव में ही मिलें थे, साथ काम किया - चूंकि उत्सव ही सामाजिक था तो जाहिर है दोनो को सोशल दिखना ही था, अंदर से भले ना हो
फिर क्या था, चिठ्ठी पत्री कैसे होगी - इस पर सहमति बनी, डाक का ज़माना था और अमूमन पंद्रह पैसों के पोस्ट कार्ड से पचपन पैसों के लिफ़ाफ़े से गोपनीयता तक छुपाई जा सकती थी
लौटकर आने के बाद उसे डाकिये का इंतज़ार रहता, पोस्ट कार्ड और अंतर्देशीय से शुरू हुआ यह प्रेम का किस्सा जिसमें ज्यादातर काम की ही बातें होती थी, परवान चढ़ने लगा, पर कही - कही इशारों में ज़िक्र होता और दोनो समझ जाते
एक दिन उसके भाई ने पूछ लिया कही से फोन करके कि -"गर इस रविवार घर हो और खाली हो तो हम सब आकर एक छोटी सी रस्म कर लेते है - आगे की आगे देखेंगे", यह बात उसे समझ नही आई फिर किसी कस्बाई टेलीफोन एक्सचेंज से ट्रंककाल बुक करके उसने पूछा तो वह शायद यह कहते लजा गई होगी कि सगाई की बात हो रही है
वह तैयार नही था इस तरह से अभी, ना नौकरी और ना कोई ठिकाना, बस मना कर दिया उसने - सब एक झटके में खत्म हो गया, बड़ी निर्दयता से भूल गया सब कुछ, हाँ इसके बाद उसने बेतहाशा सिगरेट खूब पी और शरीर का ध्वंस कर लिया
अचानक बहुत सालों बाद फिर संयोग से कही मिलें तो उसने पूछ लिया -"तुम्हारे पति क्या करते है", तो बोली - "शादी नही की है, जब तुम अकेले रह सकते हो तो मैं भी हिम्मत से रह सकती हूँ " और ये बिटिया- उसकी गोद मे चार पाँच साल की एक लड़की थी बिल्कुल बार्बी डॉल की तरह, "बस मन था तो लीगली गोद ले ली, लेह गई थी इसे लेने और अब यही मेरा जीवन है"
फिर से रिश्ते चल निकले है, गाहे - बगाहे बात हो जाती है, अब मोबाइल और सोशल मीडिया का समय है तो कम से कम जन्मदिन पर तो दोनो विश कर ही देते है एक दूजे को, बेटी बड़ी हो रही है, वह भी बूढ़ा गया है और पहाड़ी के किसी कोने की ओर अपना घर एक छोटे से खेत में बनाकर रहता है, गांव में भी अलख जगा रहा है पर बाप बनने की चाहत अभी जिंदा है तो अक्सर अब उसके बजाय बिटिया से बात कर लेता है फोन पर और फिर यूँ चहकता है जैसे कोई कारूँ का खजाना मिल गया हो
इधर ये और उधर वो अकेली है, दोनो में साहस है, हिम्मत, जोश और बदलाव की ताक़त भी, दोनो ने परिवार से बगावत कर अपना संसार रचा है और एक वृहद दुनिया बनाई है, दोनो दक्ष और कुशल है, सम्पर्क और सम्बन्धों का दायरा दोनो का बहुत बड़ा है कि एकाकीपन खलता नही, दोनो ने इतना व्यस्त कर लिया अपने को कि अपने बारे में ही सोचने को समय नही पर क्या यह सच है, जीवन इतना सघन है, संवेदनाएँ इतनी अनुभूति से प्रतिफ़ल देती है, उद्दाम वेग की भावनाएँ, अवसाद, और संत्रास का क्या
सब कुछ है दोनो के पास - धन, यश, कीर्ति और सम्पत्ति पर जहाँ से खुशियों की आस फूटती है, जहाँ से किसी भुनसार में सूरज की रश्मि किरणों से पौ फूटती है, जहाँ किसी सांझ तले मंद हवाएँ बहती है और रात को दो लोग जागते हुए शुक्र तारे की बाट जोहते हो - वहाँ दो ध्रुवों पर जीवन मानो सिसकियां लेता है और फिर कभी कोई आशा की लौ नही दीपदीपाती, पगडंडियों के नाम कोई मंजिल नही होती कभी
जीवन अनिश्चय की स्थिति में चल रहा है, उसने अपना खेत और संपत्ति बिटिया के नाम लिख दी है और बस अब औचक सा होकर हर सुबह और शाम को शून्य में तकता रहता है, खेत में मेढ़ से जब पानी बहता है और ठंड लगने लगती है तो उस शॉल को ओढ़कर गर्मी महसूस करता है जो कभी उसने अहमदाबाद के किसी लोकपर्व के मेले पर उसने उसे खरीद कर गिफ़्ट की थी
यह भी सोचने में अब वह ज़्यादा वक्त देता है कि आज जब गम्भीर रूप से बीमार होता जा रहा है तो उसके बाद उसका क्या होगा, क्या सचमुच उसमें अकेले रहकर जीने की लालसा बचेगी, क्या वह सब हैंडल कर लेगी, क्या वह सच में इतनी हिम्मती है, अपने अपराध बोध और ग्लानियाँ उसे फिर उस कमरे में ले आती है और वह एक नींबू वाली चाय बनाने लग जाता है जिसके पाउच उन दोनों ने मसूरी की उस दुकान के पास से लिए थे जहाँ से ढेरों किताबें भी खरीदी थी और एक गोरे लेखक से भी मिले थे, जिसकी कहानियों का वह दीवाना हुआ करता था क्या नाम था भला - रस्किन बॉन्ड
पहाड़ अब भी उतना ही सख्त और ऊँचा है, खेत वैसे ही हरे है जैसे सतना के पास वाले मैहर में ऊँचे पहाड़ पर स्थित शारदा माँ की पूजा के समय पुजारी ने उसे हरा चूड़ा पहनाते हुए कहा था "सदा सुहागन रहो" और मुझे हथप्रद देखकर जोर से हँस पड़ी थी, बाद में ट्रेन में आँसू मैंने ही पोछे थे

जब यह सब वह कह रहा था तो मैं कुछ नही बोला - फिर वो बोला चलता हूँ, जानवर खेतों से लौट रहे होंगे, गायों के रम्भाने की आवाज़ें कही दूर से आने लगी थी

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कुंडली का दोष और कुंडली मिल जाने पर भी प्रेम टिकेगा - इस बात की ग्यारंटी कोई नही लेता, न वो ज्योतिष जो ग्यारह सौ इक्कावन रूपये लेकर पत्रिका जुड़वा देता है, ना वो पंडित जो मोटी दक्षिणा लेकर ब्याह करवा देता है और ना वो माँ - बाप जो कुंडली मिलान की जिद के कारण बेटी या बेटे की इच्छाओं का गला रेत देते है
बड़े शहर के बड़े बाप की बेटी थी, अच्छे स्कूल में पढ़ी थी, प्रदेश के अच्छे संस्थान में उसे नौकरी लगी और बहुत खुले विचारों की थी इसलिए उसकी यारी - दोस्ती भी अच्छे लोगों से थी, साथ में पढ़ने वाले कई लड़के उसके आशिक थे ; परंतु उसे इश्क जब हुआ तो आश्चर्य लगा कि उसके साथ काम करने वाले एक सामान्य परिवार के लड़के से इश्क हुआ और वह डूब गई प्रेम में उसके
उसके साथ पूरा प्रदेश और देश घूमती थी क्योंकि वे लोग एक ट्रेनिंग टीम का हिस्सा थे, लड़की के पिता बड़े सरकारी अधिकारी थे इसलिए रूपए - पैसे की कभी कमी नहीं थी, बस मां-बाप यह चाहते थे कि उसकी शादी ऐसे लड़के से हो जिसकी पत्रिका में मंगल का योग बहुत तगड़ा हो - क्योंकि लड़की की पत्रिका में मंगल बहुत तेज था और यदि उनकी सुकन्या का ब्याह किसी सामान्य लड़के से हो जाता तो यह आशंका थी कि उनकी शादी बिगड़ जाती, इसलिए माँ बाप हमेशा तगड़े मंगल वाले लड़के को ढूंढा करते थे
आख़िर जब शादी तय हुई तो सभी को लगा कि उस ही लड़के का नाम पत्रिका में होगा जिसके साथ वह घूमती रही थी पर अफसोस नाम किसी और का था, बाद में बहुत याद करने पर समझ आया कि यह तो वही लड़का था जो उसके साथ पढ़ता था, जाति भी एक थी दफ़्तर भी एक, पर वह वह मंगली था - किसी को मालूम नहीं था और उसका इस सबमें विश्वास था यह भी अचरज़ वाली बात थी
बहरहाल, दोनो की शादी हो गई, सब ठीक-ठाक निपट गया, दो बच्चे हो गए यहां तक सब ठीक था, पर बाद में यहां-वहां से खबरें मिलने लगी कि उन दोनों के बीच में खटर-पटर चलती रहती है और रिश्ते बड़े नाजुक स्थिति में है - कारण भले ही लड़के के परिवार, उसके भाई और परंपरागत अंधविश्वास के रहे हो - परंतु लड़की की जिंदगी बर्बाद हो रही थी, यह बात सच थी
लड़का उत्तर प्रदेश के किसी दूरस्थ गांव का रहने वाला था और एक-एक करके उसके तीन भाइयों की मृत्यु हो चुकी थी और यह माना जा रहा था कि वह गांव का पुश्तैनी घर अपशकुनी है और कोई बाहर का साया पड़ा है घर पर जिसकी वजह से परिवार के पुरुष मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं, लड़के को सख्त मनाई थी कि वह घर नहीं जाएगा, लड़की इस अंधविश्वास के खिलाफ अपने पति से लड़ती थी परंतु कहीं ना कहीं उसके मन में भी आशंका थी कि अगर वह घर गया तो कुछ हो ना जाए इस वजह से वह लड़के को घर नहीं जाने देती थी जबकि लड़का अपनी मां और विधवा भाभियों और भाइयों के बच्चों के लिए चिंतित रहता था
आखिर एक दिन दोनों में काफी लड़ाई हुई और पता चला कि दोनों में तलाक जैसा हो गया है यह सब कानूनी तौर पर हुआ या नहीं हुआ - नहीं मालूम परंतु दोनों अलग रहते हैं - यह पक्का है लड़की अब अकेली रहती है, उसने दोनों बच्चों को बड़ा किया, घर पर ही अपना एक व्यवसाय शुरू किया नौकरी छोड़कर और सुकून से रहने की कोशिश कर रही है, बेटा अमेरिका जा चुका है पढ़ने और बेटी यही कॉलेज में पढ़ रही है
उसका पति पता नहीं कहां है, किस हाल में रह रहा है यह नहीं मालूम - परंतु लड़की बहुत शिद्दत से अपने पूर्व प्रेमी को याद करती है उससे बात करती है और कभी-कभार राजधानी में उसके साथ घूमते - फिरते नजर आ जाती हैं, पूर्व प्रेमी तो अभी तक कुंवारा है उसकी कुंडली में शादी का योग ही नहीं लिखा था, वह अपने ही संघर्षों में जूझता रहा और धीरे-धीरे खत्म होने के कगार पर आ गया है, उसके लिये अब सब कुछ तटस्थनुमा हो गया है
कहते हैं ना "प्रेम गली अति साँकरी - तामे दो ना समाय", कुंडली के योग और कुंडली मिलान ने कितनी ज़िंदगियाँ बर्बाद कर दी है, यह नही मालूम पर लड़की अक़्सर सोचती है कि क्या अमेरिका में भी कुंडली मिलाकर ब्याह होता है, उसके माँ - बाप ने तो कुंडली मिलाई थी, सब विधि विधान से किया फिर इस साठ साल की उम्र में किस दुष्ट ग्रह की नज़र पड़ गई उसकी खुशहाल ज़िंदगी पर कि बुढ़ापे में अलग रहना पड़ रहा है और पूर्व प्रेमी के संग बदनामी झेलकर घूमना पड़ रहा है, पर हसरतें तो मरने के बाद भी ज़िंदा रहती है ना इंसान की

अचानक उसे "मुझे चाँद चाहिये" की वर्षा वशिष्ठ याद आती है जो जीवन भर प्रेम की परिभाषाएं खोजती रहती है और हर्ष की आत्महत्या के ठीक पहले उसे एक मुकम्मल परिभाषा मिलती है कि "प्रेम वह है - जिसके साथ आप बूढ़े होने को तैयार हो और बूढ़ी बाँहों में सोने को तत्पर हो"

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दुनिया में ज्यादातर इश्क इसलिये मुकम्मल नही हो पाते कि वे इज़हार के रूप में कभी सामने नही आ पाते है और जब कभी इज़हार होता है और इश्क में पींगे बढाकर दो लोग जीवन की शुरूवात करते है तब तक दुनिया का विधाता कुछ और लेख लिख चुका होता है
बड़े से घर की जिम्मेदार लड़की, सबका ब्याह शादी करके भाई बहनों के परिवार पालती रही, घर के ठीक सामने वाली पट्टी में वह भी ऐसा ही था, दो तीन बहनों के घर बसाये, माँ बाप को पाला और इस तरह से उसका जीवन निकल रहा था
दोनो मन ही मन एक दूसरे को चाहते थे, पर कभी कुछ नही बोलते, मैंने दोनो को घण्टों तक लड़की के घर के ऊपरी हॉल में चुपचाप बैठे देखा , अब याद करता हूँ तो हँसी आ जाती है कि जब फिल्में देखकर आता तो दोनो को फ़िल्म की पूरी कहानी फ्रेम दर फ्रेम सुनाकर बोर कर देता था, पर मज़ेदार यह था कि वे सुनते और धैर्य से सुनते, "चले जाओ" - यह कभी नही कहा, अच्छे से याद है 'लैला मजनू' देखकर आया था तो एक शाम उन्हें अकेला पाकर पूरी कहानी सुना दी, शोले फ़िल्म के एडिटर एम एस शिंदे जब उनके घर आये थे तो उनसे बातचीत करते हुए भी उन्हें शोले की कहानी सुना दी थी, शिंदे साहब आश्चर्य में पड़ गए मेरी वाचालता और मेमोरी से, उन्होंने यानी शिंदे साहब ने कुछ कहा, समझाया दोनो को और मुम्बई लौट गए एक हफ़्ते बाद ही अचानक लड़का, लड़की के घर गया और बोला कि तीन - चार दिन की छुट्टी ले लो हम शादी कर रहें है
मोहल्ले में यह बात बहुत बड़ी थी, सबको पता था पर उनकी चुप्पी के आगे कोई नही बोलता था, दोनो अलग-अलग गांवों में शिक्षक थे, बल्कि दोनो हेड थे, इस शादी की खूब चर्चा हुई, नईदुनिया जैसे अखबार ने छापा था "55 के बूढ़े को चढ़ी जवानी" पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नही दी, शादी करके दोनो बेहद खुश थे, लड़की को लाल जोड़े में घर से दस कदम की दूरी पर निर्लिप्त भाव से जाते हुए देखा था, वो चेहरा याद है और लड़का कितना ख़ुश था यह भी मैं घण्टों बैठकर आपको बता सकता हूँ - एकदम सीधी सादी शादी हुई थी, और कोई तामझाम नही
लड़की घर से विदा होकर सामने वाले मकान में चली गई और तीन - चार दिन बाद सब सामान्य हो गया, स्कूल जाने लगे दोनो, धीरे - धीरे जीवन ढर्रे पर चलने लगा, मुश्किल से दो साल बीते होंगे, इस बीच उन्होंने शहर की एक नई कॉलोनी में मकान बनवाया और फिर तीसरे साल ही लड़का रिटायर्ड हुआ और रजनीश की साधना करता ही था , एक शाम उसे अटैक आया और सब कुछ खत्म हो गया - लड़की उस घर में अकेली रह गई तो ननद और उसके जवान बेटों ने लड़ना शुरू किया और अंत में उसे हकाल कर ही माने - नियति क्रूर होती है पर इतनी यह मेरे लिए उस समय सब देखना समझना बहुत मुश्किल था पर सच यही था, लड़की ने किस्मत मानकर सब स्वीकार कर लिया और फिर से स्कूल में ध्यान देने लगी
लड़की पुनः पीहर याने पुराने घर आ गई, सपनों का घर जो बनाया था उसे किराए पर चढ़ा दिया और कभी पलटकर नही देखा - स्कूल बदस्तूर चालू था, स्मृतियाँ सिर्फ़ तीन साल की नही थी, एक लम्बा अरसा प्रेम में गुजरा था, लिहाज़ा लड़के को याद कर वह किस्से सुनाती और मुझे लगता कि वह एक बेहतरीन किस्सागो थी , अक्सर मुझे बुलाती और इस शहर के बहाने, लोगों के बहाने प्रेम से पगे हुए किस्सों की लड़ी लगा देती, परिपक्व चेहरे और उम्र के निशान थकी हुई देह के परे जाकर वह सब कुछ यूं बया करती - मानो वह एक दृष्टा हो और सब कुछ किसी महाभारत सा घट रहा हो
धीरे - धीरे बीमार होती गई, रिटायर्ड होने के बाद मरे हुए भाइयों के परिवार सम्हाल रही थी, उस घर की ओर आस से देखती जहाँ तीन भरपूर साल बीताये पति के साथ, पर उस ननद और उसके बच्चों के प्रति कोई बैर नही था जिसने घर से लड़कर निकाल दिया था - कहती थी कि "मेरे पति को जीवनभर तो उसी ने सम्हाला, इसलिये उनके मरने के बाद मैं घर और संपत्ति ननद के लिये छोड़कर आ गई - क्या करती जब पति ही नही रहा, वो शख्स जिससे जीवन भर प्यार किया और शर्म हया के कारण शादी नही कर पाए, जबकि जाति वर्ग एक था, पर ठीक है तीन साल की यादें ही धरोहर है और अब जीने का आसरा"
इधर रोज बीमार पड़ने लगी थी, अक्सर फोन करके बुलाती और फिर किस्से सुनाती, राजा के वंश के, इस शहर के मराठों के, स्कूल के, मोहल्ले के और फिर धीरे से कहती "उसे तीन साल और कम से कम मेरे साथ रहना था" , कभी पाँव लचक जाता, कभी हाथ फ़्रैक्चर हो जाता, कभी पेट खराब और कभी सीने में दर्द रहता, भाई सभी गुजर गए थे, मुम्बई वाली बड़ी बहन जब गुजर गई तो वो बुरी तरह से टूट गई, मेरी माँ उनकी पक्की सहेली थी - जीवनभर दोनो ने एक स्कूल में पढ़ाया, माँ के जाने के बाद भी हिम्मत हारी थी
एक दिन जब मैं किसी शहर में काम से गया था तो घर से फोन आया कि वो नही रही - मैं सन्न था, विश्वास नही हुआ - क्योंकि हीरा दरकता है, टूटता नही कभी - पर वो आख़िर तक हीरा बनी रही और फिर क्या हुआ कि टूट गई, जीवन भर का अबोला निश्छल प्रेम, तीन साल का सानिध्य और मरने तक स्मृतियाँ ओढ़कर जीना - शेष निःशेष जीवन का अकेलापन और किस्सों की तड़फ, आख़िर एक इंसान और क्या - क्या सह सकता है और कब तक जबकि अंत सबका ही आना है एक दिन, वे अस्सी की उम्र में मरी बल्कि शायद 85 की, पर प्रेम का जीवन सिर्फ़ तीन बरस ही जी पाई अपने मेहबूब के संग बाकी तो इज़हार करने की हिम्मत जुटाने और फिर शेष बचा स्मृतियों के दंश को सहने में ही गुज़र गया - मुझे लगता है -"क्या इसे जीवन कहना भी उचित होगा"
ईश्वर होगा तो उसने ऐसी प्रेम कथा क्यों लिखी जो बेचैनियों के बरक्स जीवन का पर्याय बन गई, प्रेम का इज़हार सही समय और और जल्दी कर देना ही तड़फ और अवसादों से बचना है - प्रेम का मुकम्मल होना ना होना - अलग बात, पर कोई हीरा किसी शशि से सामने रहकर भी अकेलेपन की त्रासदी को ना भुगते - कम से कम अपने हिस्से का प्रेम पाकर जीवन तो जी लें - जब किसी की आँखों में प्रेम की डाँवाडोल तस्वीर देखता हूँ तो लगता है जी भरकर आशीष दूँ, संरक्षण दूँ कि जल्दी से प्रेम में स्थिर हो जाओ और इज़हार करके एक मंज़िल पा लो

मैं अफ़सोस ही कर सकता हूँ कि हीरा को आख़िर समय में कंधा नही दे सका पर हीरा के सुनाये हुए किस्से मेरे ज़ेहन में है, कभी ऐसी ही किसी रात को इस शहर के उन सभी प्रेम के चरित्रों को शिद्दत से याद करूँगा और कहूँगा कि , ज़ोर से कहूँगा कि प्रेम का इज़हार जल्दी कर दो, अपने मेहबूब के साथ जीवन बीता लो क्योकि दरवेश बने बिना कोई कहानी मुकम्मल नही होती

8

घर से भागी हुई, प्रेम विवाह, विजातीय संग विवाह, किसी और का घर बिगाड़कर जाकर बैठ गई, घर बिगाड़ू औरत और ना जाने किन - किन बिंब, उपमाओं से सम्बोधित प्रेम में डूबी लड़कियों को हमने कितना निम्न तरीके से विभूषित किया है - यह सोचने का समय नही किसी को, जब भी समाज थोड़ा सा खुले मन से कुछ स्वीकारता है - तब तक दूसरी घटना यूँ घट जाती है कि लोग फिर से अपनी रूढ़िवादी सोच पर उतर आते है और खुलेपन को त्याग देते है
क़स्बे में प्रतिष्ठा जितनी तेजी से स्थापित होती है उससे डबल गति से खत्म होती है, यह निर्विवाद सच है - निजी कम्पनी में बड़े पद पर आसीन बाप की बेटी थी, एकमात्र अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ी पर किशोरावस्था में बहक गई, एक नही, दो नही यहाँ - वहाँ से किस्से बहते चले आते थे, सिर्फ़ उसके नही, उस उम्र की तमाम लड़कियों के और इसमें अंत में बेचारे लड़के हमेशा निष्पाप रहते और जल्दी ही मोटा दहेज लेकर सेट हो जाते जीवन में ब्याह कर, लड़कियों की नींद में दुखस्वप्न ही बदे रहते थे
दो - तीन प्रेम प्रसंगों को और तमाम तरह की कहानियों के बाद आख़िर लड़की के विजातीय विवाह को माँ बाप तैयार हुए और बगैर किसी को बताये विवाह कर आये, महीनों तक पड़ोसियों और रिश्तेदारों से कहते रहे कि बेटी कोई कोर्स करने बाहर गई है, परंतु एक न एक दिन सबको मालूम पड़ना ही था - किसी ने देख लिया था कि वह दूसरी कॉलोनी के लड़के के साथ स्कूटर पर घूम रही थी - गले में मंगलसूत्र था, माथे पर बिंदिया, मांग में सिंदूर भरा हुआ था, हाथ में चूड़ियां थी, पांव में बिछिया थी और जो चेहरे पर एक विवाहित महिला की सुहागन वाली आभा होती है वह भी मौजूद थी - ऐसा औरतें कहती थी
बहुत जल्दी यह यह बात फैलने लगी और आखिर में फिर माँ बाप ने भी सबके सामने मान लिया कि बिटिया का विवाह दूसरी जाति के लड़के के साथ हो गया है और वे दोनों प्रेम में थे और अपना पद, दर्प और जातिय अहम छोड़कर शादी की बात लड़की के पिता को बहुत दिनों तक हजम नहीं हुई और वे मकान बेचकर, कस्बा छोड़कर पास के शहर में चले गए, वही मकान बना लिया
लड़के ने थोड़े दिन तक लड़की को अपने साथ रखा परंतु बेरोजगारी और 2008 के आते-आते पूरी दुनिया में मंदी का जो साम्राज्य छा गया था उसके चलते लड़के की नौकरी छूट गई, लिहाजा मां-बाप ने लड़की और दामाद को अपने पास बुला लिया और एक मकान बना कर दे दिया ; लड़के के पास कोई नौकरी नहीं थी - वह घर से रोज निकलता और यहां-वहां घूमता रहता, कभी पुलिस बनकर लोगों को ठगता, कभी बैंक अधिकारी बनकर वसूली करने पहुंच जाता, सूने घरों में चोरी करता या घर आकर लड़की से झगड़ता, आए दिन अखबारों में उसका नाम आने लगा तो बदनामी होने लगी - लड़की और लड़के में बहुत लड़ाई होने लगी और इसका नतीज़ा यह हुआ कि लड़की ने घर छोड़ दिया और मां-बाप के पास जाकर रहने लगी
लड़के ने सास - ससुर का दिया हुआ मकान कब्जा करके किसी और को बेच दिया और वह पैसा भी हजम कर गया, शराब और नशीली दवाओं की आदत का शिकार बना लड़का उम्र के 40 साल में ही लगभग बर्बाद हो गया था और एक दिन अचानक खबर आई कि लड़का मर गया, लड़की के सामने जीवन किसी पहाड़ की तरह खड़ा था - बेटी बड़ी हो रही थी
लड़की के मां-बाप ने फिर दूसरा मकान भी खरीदकर ले दिया, लड़की में खुद्दारी बाकी थी उसने कहीं नौकरी कर ली और मां-बाप से दूर जाकर अपने मकान में रहने लगी - बेटी को पढ़ाने पर उसका फोकस था, लड़की के पुराने कुछ दोस्तों ने उसे फिर चारा डाला, परंतु लड़की अब इतना समझ गई थी कि जीवन अनिश्चितताओं में और भटकाव में नहीं है, एक तरह की आध्यात्मिक परिपक्वता कम उम्र में ही उसके जीवन में आ गई थी इस सबसे
उसने बहुत स्थिर होकर जीवन जीने का फैसला किया, पति की मृत्यु के बाद ससुराल छोड़ा, मां-बाप को छोड़ा और बेटी को पढ़ाया, आज भी वह नौकरी कर रही है और बहुत संयमित ढंग से अपना जीवन जी रही है, एक बार जब कहीं भरे बाजार में मिली थी दोपहर को भीड़ में तो उसने दूर से पहचान लिया और पास आकर बोली कि -"मैंने जीवन में बहुत सारे समझौते किए, प्रेम को पाने की कोशिश की परंतु मुझे लगा कि हर बार में प्रेम में ठगी गई और मेरे अस्तित्व को हमेशा प्रेम ने ही ठगा है - इसलिए अब मुझे ना अस्तित्व पर भरोसा है, ना प्रेम पर - बस जीवन जीना है और मैं जैसे भी रास्ते में जो आता है उसे जीते जा रही हूं - मेरी सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी है, मेरी सारी महत्वाकांक्षाएं मर चुकी है और मेरे पास स्मृतियों के पिटारे में अब ना प्रेमी है, ना पति - शायद ईश्वर ने आंखें इसलिए सामने दी है कि जो रास्ते में सामने आ रहा है - मैं उसे देखते जाऊं और आगे बढ़ती जाऊं, मेरी बेटी बड़ी हो गई है उसे ठीक से अपने जीते जी सेटल कर दूँ - यही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह गया है...."
जब वह यह कह रही थी तो हम सप्तवर्णी के पेड़ों के नीचे से गुजर रहे थे सप्तवर्णी वह पेड़ है जो मौसम आने पर खूब खुशबू तो देता है, पर सिर्फ रात के अंधेरे में - दिन में वह इतने ही तटस्थ रहते हैं जितनी वह जीवन के प्रति हो गई थी - मैं कुछ भी नहीं बोला, थोड़ी दूर जाकर हमने एक कॉफी हाउस में चाय पी और वहां से विदा हो गए
मुझे नही मालूम कि उसका भाग्य खराब है या सही दृष्टि नही प्रेम को पहचानने की पर जीवन संकट और त्रासदियों का दूसरा नाम जरूर है उसके लिये

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प्रेम सबसे ज़्यादा अपने लोगों को तकलीफ़ देता है, अपने लोगों को दूर करता है, भावनाओं के उन कोमल तंतुओं को उखाड़ फेंकता है जो जन्म के पहले से जननी या जनक या सहोदरों से जुड़े थे इसलिये जब कोई कभी कहता है कि प्रेम अंधा होता है तो मैं मानने को विवश हो जाता हूँ
"देखो कोई भी केस लड़के वालों पर नहीं बनता है - तुम क्या चाहते हो यह बता दो तो फिर उस हिसाब से सोचा जाएगा", मैं उसे फोन पर समझा रहा था - उसने कहा कि "मुझे बस यह चाहिए कि लड़का या उसके मां-बाप मेरी बेटी को यह समझा दे कि तेरे मां-बाप तेरे हैं और उन्होंने कुछ नहीं किया है जो गलती है वह हमारी है" - शहर प्रतिष्ठित लोग थे, दो बेटियां थी और दोनों मियां - बीवी नौकरी करते थे, बेटियों को अच्छी शिक्षा दिलाई और नौकरी में लगवाया
अचानक पिछले हफ्ते उन्हें मालूम पड़ा कि बेटी पीछे की लाइन में रहने वाले किसी दूसरी जाति के लड़के से प्रेम करती है और यह प्रेम पिछले 5 साल से चला आ रहा है, उस दिन बेटी ने कोई दवा पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की तब जाकर उन्हें पता चला कि लड़की पिछले 5 साल से उसे लड़के के साथ प्रेम प्रसंग में थी और अब लड़के ने शादी करने से मना कर दिया है
50 लाख का दहेज लेकर अपनी जाति में शादी कर रहा है लड़का, लड़की ने यह बात अपने मां-बाप को बताई और जिद पकड़ ली कि यदि वह शादी करेगी तो उसी लड़के से अन्यथा नहीं करेगी, लड़की के मां-बाप बड़े परेशान हुए, लड़की के पिता चूँकि मेरे दोस्त थे - इसलिए उन्होंने मुझे यह किस्सा बताया और कहा कि यह सब मामला हो गया है , अब पुलिस में हमें नहीं जाना है, परंतु लड़के के मां-बाप से बात की है, चाचा से बात की है तो वे लोग सुनने को तैयार नहीं है और अपनी बेटी की शादी अपनी जाति के लड़के से ही कर रहे हैं, उन्होंने मेरी बेटी को हमारे खिलाफ इतना भड़का दिया है कि बेटी हमारी बात सुनने को ही तैयार नहीं है और जब यह कह रहा था तो वह बहुत द्रवित हो गया था और उसकी आंखों में आंसू थे
मैंने समझाया कि बेटी पर ध्यान देना और उसके कमरे में कोई ऐसी चीज ना छोड़ना, जिससे वह आत्महत्या करने की पुनः कोशिश कर सके, दो दिन बाद मामला शांत होता नजर आ रहा था ,परंतु अचानक चौथे दिन फिर से दोस्त का फोन आया और उन्होंने कहा कि बेटी घर से गायब हो गई है फिर दूसरे दिन सुबह उन्होंने बताया कि बेटी कल रात को लौट आई, आज उनका फिर से फोन आया कि बेटी ने पुनः आत्महत्या करने की कोशिश की और अब वह आईसीयू में भर्ती है एसडीएम आकर उसके बयान लेकर चला गया है अब ऐसी स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए, मामला पुलिस में चला गया है
गुस्से में वह लड़के के पिता को पीट कर भी आए थे, मैंने कहा शांत हो जाइए लड़के के अभिभावकों पर कोई मुकदमा नहीं बनता है क्योंकि लड़का और लड़की दोनों बालिग है इसलिए शादी का निर्णय वे दोनो स्वयं ले सकते हैं और आप कोई जबरदस्ती नहीं कर सकते कि लड़का आपकी से शादी करें, 5 साल वह प्रेम प्रकरण में रहा - यह कोई मुकदमा नहीं है, और आप ध्यान कयव नही दे रहे है बेटी पर वह बार बार आत्महत्या कैसे कर रही है, तंग आकर मैंने कहा कि आप क्या चाहते हो यह स्पष्ट बता दें तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि लड़के और लड़के के मां-बाप ने मेरी और मेरी पत्नी के खिलाफ बेटी के दिमाग में कचरा भर दिया है, वह कचरा वह साफ करें और लड़की इतनी भ्रमित हो गई है कि अब उनके कहने के बाद ही वह हम पर विश्वास करेगी , हम सब लोग परेशान हैं, घर की दिक्कत है अलग है - क्योंकि रिपोर्ट हो गई है - इसलिए पुलिस भी हमें परेशान कर रही है
अब आप रास्ता सुझाइए या दूसरा कोई अच्छा सा लड़का बताइए ताकि हम इसकी तुरंत शादी कर सके, मेरा जवाब था कि "मुझे नहीं लगता कि लड़की अभी शादी के लिए तैयार होगी भी या आपको शादी करनी चाहिए, पर हां यदि लड़के के शादी के समय कोई नाटक हो गया तो आप सब पर पुलिस केस बनेगा
यह बात निश्चित है मैं यह सबकी मदद जरूर रहा था, परंतु मुझे चिंता उस लड़के की और लड़की की थी जो बचपन के दोस्त और सहपाठी होते हुए भी एक साथ एक छोटे शहर में रह रहे थे और यह सब हुआ, अब लड़का किसी भी हालत में शादी करने को तैयार नहीं है - उसे 50 लाख रुपए दिख रहे हैं, अपनी जाति का गौरव दिख रहा है और उसे समझ आ रहा है कि एक छोटी-मोटी नौकरी करने वाली ब्राह्मण लड़की से शादी करके उसे अपना स्टेटस खत्म नहीं करना है, इसलिए वह लड़की से दूर हो गया है, भोग संस्कृति ने प्रेम को बर्बाद कर दिया
इधर लड़की का दिमाग बस में नहीं है, वह बार-बार आत्महत्या करने की कोशिश कर रही है ताकि किसी भी हालत में जीने की दुविधाओं से मुक्त होकर वह अपने आप को मुक्ति दे सके, सोचता हूँ कि जरूर दोनो के बीच प्रेम से आगे की बात हुई हो जिसकी वजह से लड़की बार-बार आत्महत्या करने की कोशिश कर रही है और लड़की के मां-बाप को बार-बार समझाने के बाद भी यह समझ नहीं आ रहा है कि लड़की को अलग से कमरे में रखने की क्या जरूरत है जहां वह आत्महत्या कर लेगी
प्रेम के इतने स्वरूप में यह भी एक प्रेम है जहां भोग करो, इस्तेमाल करो और फिर फेंक दो

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माँ बाप के प्रेम प्रहसनों का कर्ज औलादों को भुगतना पड़ता है और इससे ना मात्र वे अपराध बोध में जीवन बीताते है - बल्कि वे प्रेम, त्याग, समर्पण, कष्ट और सुख - दुख के प्रति निस्पृह हो जाते है और बेहद शुष्क और कठोर भी
"बताइये मेरी क्या गलती थी, मैं अब 18 वर्ष का हो गया हूँ, माँ ने तीन शादियां की - पहले पति से कोई संतान नही हुई, उसे छोड़कर मेरे पिता जो उम्र में लगभग 15 वर्ष माँ से छोटे थे, से शादी की - तो मैं पैदा हुआ, दस साल भी रिश्ता नही चला - मेरे पिता निकम्मे तो नही, अलबत्ता रोज़ कमाओ - खाओ वाली नौकरी में रहे होंगे, और माँ को वह सब पसंद नही था, रोज़ के झगड़े मैंने दस साल की उम्र में ही इतने झेल लिए थे कि मैं दुआ करता था कि इनमें से कोई एक मर ही जाये तो बेहतर होगा, आख़िर एक दिन पिता छोड़ गए घर बगैर तलाक लिए, बाद में दोनो को अदालत ने बहुत घिसा"
"अब मुझे मालूम है कि वो किसी और तलाकशुदा महिला के साथ रहने लगे है और शहर दर शहर घूमते रहते है उसे लेकर, मेरे दोस्तों ने बताया कि वह भी अच्छी औरत नही है और कइयों से रिश्ता रखकर सती सावित्री बनकर अब मेरे पिता के घर बैठ गई है और सारा खर्च उनसे ही वसूलती है, जात भी बहुत नीची है पर क्या करें पिता भी कम चालू नही है उन्हें ऐसी ही स्त्री मिलना चाहिये थी" वह कह रहा था
"मेरी माँ ने एक तीसरा आदमी खोज लिया जो मेरे से बस 7 वर्ष ही बड़ा है, मतलब 26 का होगा , माँ की उम्र इस समय लगभग 57 है - पर मुझे कुछ समझ नही आता, इन लोगों के चक्कर में मेरा बचपन - किशोरावस्था तो बर्बाद हुई, पर अब पढ़ रहा हूँ और साथ-साथ कही नौकरी भी करता हूँ पार्ट टाइम, जिस दिन थोड़ा सक्षम बनूँगा उस दिन माँ को भी छोड़ दूँगा - आपसे एक ही बात करना है कि जब माँ बाप को ऐयाशी ही करना थी या लड़ना - झगड़ना था तो शादी क्यों की, और कर भी ली तो मुझे क्यों पैदा किया" उसका चेहरा गर्म हो गया था एकदम लाल, हम कही बैठकर कॉफी पी रहें थे
"शांत हो जाओ, जब उन दोनों में प्रेम नही था तो साथ रहकर क्या करते, तुम अब वयस्क हो रहे हो तो समझो कि तुम एक प्लान्ड चाइल्ड नही हो, You are an Unplanned Child in their lives, इसलिये अब अपना जीवन सँवारों और किसी लड़की से ठीक समय पर शादी कर लेना , सब ठीक हो जायेगा " - मैं समझा रहा था उसे
"आप इतना बेवकूफ़ समझते है मुझे, शादी तो दूर - मैं किसी हालात में फ़ंसूँगा नही और रुपये जमा करके विदेश निकल जाऊँगा, फिर कभी लौटकर नही आऊंगा - जितनी बेइज्जती मेरे इन नालायक माँ - बाप की वजह से मैंने सही है, वह कोई नही सह सकता और माँ का कोई भरोसा नही, इस तीसरे को छोड़कर मेरे ही किसी दोस्त को घर बैठा सकती है और पिता का क्या - वो तो है ही दिलफेंक, फिर किसी अंधी, गूंगी या लंगड़ी के संग सेट हो जायेगा पर मैं अब इन्हें बर्दाश्त नही कर सकता" निकल गया था वो आवेग में कॉफी छोड़कर अपनी बाइक से
मुझे अपने युवा दोस्त का एक प्रौढ़ा से प्रेम, फिर उस प्रौढ़ा महिला से शादी, इस बच्चे का जन्म और फिर दोनो की लड़ाई, कोर्ट, बच्चे से मिलने के लिये तड़फना, रविवार का इंतज़ार करना, और फिर उसके जीवन में एक नई लड़की का आना और उसके साथ शहर छोड़कर कही और जाकर नौकरी करने के क्रम में सब कुछ याद आ रहा था, बस याद आ रहा था प्रेम - मेरे कमरे से उनके प्रेम के चर्चे, बातचीत, वीडियो कॉल्स, मेरे से उधार लेकर दिए गिफ़्ट, इस बच्चे की डिलीवरी के समय लिये उधार अभी तक नही चुकाये उसने और अब मांगने पर कहता है - "बच्चे सहित माँ को भी आप रख लो, बुढ़िया अभी भी जवान तो है" और नीचता से हंस देता है कमीना
इतनी ढीठता और नीचता प्रेम के नाम पर और अब यह 18 वर्ष का बेटा किसका है - यह दोनो में से कोई बताने को तैयार नही है, उधर 57 साल की वह महिला अपनी संपत्ति के बल पर सच में किसी को भी फांस सकती है - बेटे के शब्द कानों में गूंज रहें थे मेरे - "माँ के साथ घर में रहना और पिता को मेरी उम्र की लड़कियों के साथ घूमते देखना - दोनो ही संत्रास है"

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चहकना जीवन का सबसे पवित्र कार्य है और इसके लिये उपयुक्त मौसम, संग साथ और खूब सारा समय होना चाहिये तभी जीवन की कूक निकलती है जो खुशियों से आसपास के समूचे परिवेश को भी चैतन्य कर देती है
बेमेल शादी हुई थी, दोनो सरकारी नौकरी में थे पर गृहस्थी और संसार के जाल में दोनो कुछ ऐसे फँसे थे कि समझ ही नही आया कि प्यार क्या होता है, एक बेटा हो गया, ससुर के इलाज़, मकान, कार की किश्त और दफ़्तर से आने के बाद लड़ाई धीरे धीरे बढ़ती रही
एक दिन दूसरी जगह ट्रांसफर हो गया, पति अलग पत्नी अलग, पत्नी के दफ़्तर में भी इसी तरह के संताप वाले जोड़े थे पर एक भला सा आदमी नज़र आया उसे, फाइलों की टीप के साथ बात खाने के समय हल्की फुल्की गप पर पहुँची
फिर उसे लगा कि एक आसरा उसे मिल रहा है, पींगे दोनो और से बढ़ने लगी, सहकर्मी भी घर और बीबी के तनावों से परेशान था, पर यहाँ उसे सुकून मिलने लगा, रोज जोमैटो से मनचाही डिश आने लगी दफ़्तर, मिठाई - फल और ड्राय फ्रूट्स के साथ भोजन पर तो पूरा दफ्तर प्रसन्न हो जाता
उस पुराने से जर्जर होते दफ्तर में प्यार पनपने लगा और फिर उसके एक अकेले भर के चहकने से सारा दफ़्तर जादू नुमा हो गया, सब समय पर होता, लोग बात करते, इशारे होते - प्रेम हर ओर पनप रहा था, वर्जनाएँ टूट रही थी - बस संतुष्टि यह थी कि सब सीमाओं और दायरों में था
प्रेम का यह एक नया स्वरूप था जिसमें अपने घर के दायरों को घर छोड़कर सुबह दस से देर शाम सात बजे तक प्रेम ताक़त बनकर उभर रहा था, कितनी ही आवाज़ें इस कारवाँ में शामिल हो रही थी और तसल्ली यह थी कि इसे हर जगह, हर स्तर पर स्वीकार कर लिया गया था
दफ़्तर की काई लगी दीवारों में वसन्त की दस्तक एक आश्वस्ति थी कि सब कुछ खत्म नही होगा

12
कुछ तो हुआ होगा जीवन में कि कोई एकाकी रहने का निर्णय ले लेता है, इतना बड़ा घर, अकूत सम्पत्ति, सुख सुविधाएँ, गाड़ी - घोड़ा, इतना सुंदर और महंगा रिहायशी इलाका और उचाट सूनसान से कमरे, चलता था तो संगमरमर इतना ठंडा लग रहा था, बरसों की सीलन पीकर फर्श भी सन्न रह गया हो जैसे, दीवारें इतनी व्याकुल बतियाने को कि एक चींटी भी गुजरे तो किलकारियों की गूंज सुनाई देने लगे, छत हर आगंतुक को यूं ताकती कि अपना प्यार बरसाने को आतुर हो मानो, पर कोई फटकता नही था, मैं सम्भवतः दशकों में आया मेहमान रहा हूँगा उसके घर
तीन बिल्लियां थी रंग - बिरंगी जो घर में साम्राज्य चला रही थी और वो कह रहा था - "यह मोक्ष है, इसकी एक आँख नही - इसलिये इसे ले आया था, दोनों की तुलना में शांत है, दूसरी का नाम सर्वदा है इसका एक पाँव खराब है, इसलिये यह इसी मंज़िल पर घूमती है - छत तक नही जा पाती, तीसरी सबसे नटखट शैतान और इंसान की तरह मुकम्मल है और इसका नाम यक्षिणी रखा है मैंने, जब भी थक कर लौटता हूँ तो काम से या लम्बे सफ़र से, तो तीनों बिल्लियां बहुत धमा चौकड़ी करती है, देर रात तक सोने नही देती, फिर सुबह उठकर दादर चौपाटी ले जाता हूँ, शिवाजी मैदान में तीनों खूब उछलकूद करती है, शिवसेना भवन के सामने से होकर लौटता हूँ"
"घर असावे घरा सारखे नकोच नुसत्या भींति" - पर सच में यह हो नही पाता जीवन में, इतने बड़े घर का इतिहास बहुत पुराना है, घर के दाहिनी ओर शिवसेना का दफ्तर था शिवभवन और बायी ओर कामरेड लोग, इस पार्क में दत्ता सामंत के मजदूर इकठ्ठा होते और शिव सैनिक भी - पर जो वैमनस्य आज है लोगों में - वो नही था, हमने यही बचपन से देखा है, बहन डॉक्टर बन गई, पिताजी गुजर गए थे, मैं देश के बाहर चला गया पढ़ने, 38 साल की उम्र में जब माँ ने कहा कि लौट आओ तो क्योंकि बिल्डर ख़ौफ़ पैदा कर रहे हैं अब, धीरे - धीरे आसपास के लोग अपने घर करोड़ो में बेचकर चले गये, आज इतनी मल्टी के बीच यही एक घर बचा है जो मल्टी में तब्दील नही हुआ है..., माँ बहन के पास रहती है, मैं रोज़ खाना बनाकर भेज देता हूँ पर इस पूरे मकान में मैं अकेला ही रहता हूँ, बर्दाश्त नही होता कि कोई और यहाँ आकर बकचक करें, यहाँ की शांति कोई तोड़े मुझे मंजूर नही"
वो कह रहा था यह सब और फ़िर हाँफने लगा था, मैंने उसे अंदर से एक ग्लास पानी लाकर दिया, वह चुपचाप बैठा रहा, उसने पूरा घर दिखाया अपना, ऊपर की छत, काम करने का कमरा, छोटा सा जिम, झूला, सुरुचिपूर्ण तरीके से सजाई लायब्रेरी, रसोई, बैठक, बैडरूम, लकड़ी की कारीगरी वाला चढ़ाव, पारसी स्टाइल की लकड़ी वाली आलमारियां, फ्रीज, तांबे के बर्तन, उसके शो पीस - जो दुनिया भर से इकठ्ठे किये थे
अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और नीचे ले आया सड़क पर, हम घूमने निकल गए - शिवसेना भवन, राज ठाकरे के घर, लेक-व्यू रेस्टोरेंट, शिवाजी मैदान, अंबेडकर स्मारक, गांधी स्मारक, सावरकर संग्रहालय, बाला साहब और लता मंगेशकर को जहाँ अंतिम दाग़ दिया था - वो जगह और अंत में दादर चौपाटी पर आकर खड़े हो गए हम, वो बता रहा था कि नया पुल बन जाने से कितनी सुविधा हो जायेगी, समुद्र की हेकड़ी मनुष्य की महतबकांक्षा और हिम्मत के आगे जवाब दे जाती है और फिर मुम्बई के लोग तो अदभुत साहसी लोग है, थोड़ी देर समुद्र की गर्जन को सुनते रहे थे हम दोनों, फिर आहिस्ते से बाहर आकर रूक गए, एक रेहड़ी वाले से स्टार फ्रूट खरीदे 20 रूपये के और नमक लगाकर उसकी खटास को भीतर तक महसूसा हमने, सूखा गला तर हुआ था, ट्रैफिक रेंगने लगा था सड़कों पर और अवागर्द भीड़ बढ़ने लगी थी
लौटने में देर हो रही थी, घर आये तो भोजन तैयार था जो उसने बनाकर रखा था, इतना स्वादिष्ट और सम्मोहक भोजन बनाया था उसने कि मैं सिर्फ उंगलियाँ चाट रहा था अपनी दवाई ली मैंने तो वह बोला -"ठीक रहना बहुत जरूरी है, ख्याल रखा करो, जब मन करें तब आ जाना हम घूमने जाया करेंगे समुद्र किनारे और आ ही जाओ बल्कि मार्च में दसेक दिन के लिये, इस मल्टी, खजूर, नारियल के पेड़ों के बीच घूमते हुए समुद्र किनारे हम कहानियाँ खोजेंगे, नई कहानियाँ बुनेंगे, कविताएँ पढ़ेंगे, मैं मार्खेज को समझना चाहता हूँ, कबीर को समझना चाहता हूँ, मैं पाश और गोरख पांडेय को पढ़कर आत्मसात करना चाहता हूँ, जीवन में लम्बे समय बाहर रहने से अपना बहुत कुछ है जो छूट गया है "
"और हाँ, कमरे की सारी तस्वीरें हटा दी है और मैं भी एकदम खाली हूँ अब, सब कुछ भूला दिया है , नये सिरे से कुछ भी करने की हिम्मत नही है, तुम सिर्फ़ आज और भविष्य की बात ही करना बाकी किसी बात का मैं जवाब नही दे पाऊँगा", मैं उबेर टैक्सी में बैठ रहा था, वो हाथ हिला रहा था जैसे कह रहा हो अभी ना जाते दो चार दिन और रूक जाते तो शायद हम दोनों ही कुछ अपना दर्द बाँट सकतें थे, टैक्सी आगे बढ़ रही थी पर मैं उसी घर में मोक्ष, सर्वदा और यक्षिणी नामक तीन बिल्लियों को याद कर सोच रहा था जो शख़्स बिल्लियों के अंधे होने या पाँव खराब होने को लेकर इतना संवेदनशील हो सकता है और अपना जीवन उनके इर्दगिर्द बुन सकता है वह किससे धोखा खाया होगा
मैंने देखा था घड़ी में समय - ठीक तीन बजे थे और तारीख थी 14 फरवरी 2024, यह इश्क के नाम समर्पित एक दिन ही था महज और मैं चकित था, पूना तक आते - आते जितना मैं रोया हूँ उतना तो पिता की मृत्यु के बाद भी नही रोया था, फरवरी उफ़्फ़ !

#फरवरी_इश्क_है


[ फरवरी में उन सभी सफल - असफ़ल प्रेम कहानियों को छोटे स्वरूप में लिखने की कोशिश होगी - जो मैंने देखी, सुनी और भुगती है और हर कहानी के घटित होने का साक्षी रहा हूँ ]

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हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही