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Showing posts from August, 2014

सतर्कता भरी निराशा बेहतर है उद्दाम आशा से

ये मस्लोहत है, तवज्जो है कि साजिश| कि मेरे दुश्मन ने मेरे हक़ में दुआ माँगी है।| पता नहीं क्यों बहुत ज्यादा भ्रम बढ़ गया है और कुछ समझ नहीं आ रहा है, ये भ्रम सारे उजालों और अंधेरों को लेकर है , सारी अस्मिता और पहचान को लेकर है और जीवन के शाश्वत स्वरुप को लेकर भी है। असल में गफलत शुरू होती है जब हम अपने पर, कर्म और ध्येय पर सोचना शुरू करते है। द्वन्द, मूल्य और अपने होने करने के बीच अपने को बचाने की जद्दोजहद और फिर एक हद तक समझौते और सब कुछ बार बार समेट कर बिखरने का दर्द... मायूसी और हताशा बस ..... एक अंजाम तक पहुँचना अब बेहद ज़रूरी है। कोई जवाब सच में है क्या आदि ? आधी रात को जब हम अपने भीतर खटखटाते है तो जवाब नहीं आते और लगता है सारी उम्र यही करते रहने के बाद भी कोई सुगबुगाहट नहीं होती फिर सोचते है कि ये सन्नाटा क्यों??? सतर्कता भरी निराशा बेहतर है उद्दाम आशा से

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा - गुलजार साहब को जन्मदिन मुबारक..

" शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा जाने वालों के लिये दिल नहीं थोड़ा करते" भोपाल की उस सर्द सुबह को भारत भवन के ओसारे में मैंने जब गुलजार साहब से जब गर्मजोशी से हाथ मिलाया था तो बहुत कोमल हाथ था उनका, मानो स्याही उन हाथों से कागज़ पर उतर  आती हो और वे लिख देते है एक जिन्दगी, मैंने सिर्फ पूछा था कि आपको अभी भी तकमील की तलाश है.........और वे हंस पड़े कुछ नहीं बोले और कहा.......कभी जिन्दगी रही तो लिखूंगा तुम्हारा सवाल बड़ा जायज और मानीखेज है. बहुत देर तक मेरी बांह पकड़कर बातें करते रहे थे जिन्दगी की और फिर बोले यह तलाश कभी पुरी नहीं होती बरखुरदार, जीवन तो चलता रहता है और हम सब यूँही गुजर जाते है चुपके से यकायक, और हमें ही मालूम पड़ता है कि अब वो घड़ी आने वाली है, बस अपना काम करते रहो एक रंगरेज बैठा है ऊपर और एक कुम्हार है नीचे जो घड रहा है हमें, हर पल को, हर सांस को और हम है कि लगे है इसमे........पेच लगाने में..... गुलजार साहब को जन्मदिन मुबारक..............  — with  Aditya Shukla .

जो पहाड़ उठाकर लाया था...............

एक    पहाड़ जैसे उग रहा है अन्दर ही अन्दर और मै छुपता जा रहा हूँ इसके भीतर ही भीतर.पता नहीं कैसा लगा पर फिर लगा कि ठीक है- अपने अन्दर ही रहने दो यह सब, मै छुपा लेता हूँ खुद को तो तुम भी मेरे भीतर ही विलोपित हो जाओगे, इस तरह से हम एकाकार हो जायेंगे ठीक वैसे जैसे चट्टाने हो जाती है, जैसे बहता पानी बन जाता है झरना, जैसे पेड़ों के पत्ते बन जाते है चांदी की चमक, जैसे धुंध बन जाती है उसकी सांस, जैसे बादल बन जाते है उसका आईना, जैसे पक्षी बन जाते है रुई के फोहे, जैसे चांदनी गुम जाती है, अन्दर ही अन्दर चाँद छुप जाता है, धुप के सुनहरे गोशे बिखर जाते है ऊपर ही ऊपर, हवाएं यूँ गुजर जाती है मानो कही से आवारा मन बनाकर निकली हो............. मै    तुम्हे इसलिए छुपा लेना चाहता हूँ कि कही किसी दरवाजे की आहट से सरसराती हुई साँसों की मंद रफ़्तार में वो अनहद कही बाहर ना बिखर जाए जो हम यहाँ किसी पत्थर में पैदा कर रहे है, जो बांस की बिन गांठों की सीधी डंडी से निकलती है और जो फूंकने पर बज उठती है मानो झंकृत कर देगी समूचे वातावरण को एक स्वर में, मै इसलिए तुम्हे अपने भीतर रखना चाहता हूँ कि ये झींगुरों का शोर

राम भजन में चौकस रहना - मल्हार धूनी संस्थान में कबीर के भजन

राम भजन में चौकस रहना  हरी भजन में चौकस रहना इक दिन चोर आयेगा.... देवास के ऐतिहासिक श्री मल्हार धूनी संस्थान में आज की शाम (17 अगस्त 2014) कबीर के भजन आयोजित किये गए। इस अवसर पर स्टेनफोर्ड विवि अमेरिका की प्रो. लिंडा हैज़, बंगलोर की शबनम वीरमणि विशेष रूप से  उपस्थित थी। इस अवसर पर धूनी संस्थान की भजन मंडली और शबनम ,लिंडा ने भी मालवा के कबीर भजन प्रस्तुत किये। कार्यक्रम में अतिथियों का परिचय संदीप नाईक ने दिया। कार्यक्रम में डा प्रकाश कान्त , जीवन सिंह ठाकुर ,रोहित भौरास्कर , कैलाश सोनी , वैदेही, अमेय कान्त , अम्बुज सोनी, बहादुर पटेल , सर्वेश राठौर ,अमर येवले , राजकुमार दिघे , सुभाष शर्मा शशिकांत यादव, नारायण देल्मिया, दिनेश पटेल , विक्रम सिंह , अजय कानूनगो , प्रवीण जोशी श्रीकांत उपाध्याय, संजीवनी कान्त , मधु ठाकुर, पारुल रोड़े, अनूप सक्सेना , दयाराम सारोलिया , महेश पटेल,  अरविन्द सरदाना, स्वराली आदि गणमान्य लोग उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में एक ख़ास बात थी कि इसी बहाने से शीलनाथ महाराज के कामों और उनके आध्यात्मिक स्वरुप पर काफी जानकारी मिली। लिंडा ने अपनी किताबों में और

औचित्यहीन होती संस्थाएं और साक्षरता

देश   में साक्षरता के नाम पर खोले गए राज्य संसाधन केन्द्रों का अब क्या ओचित्य बचा है। बेहतर होगा कि यहाँ तबले बजा रहे लोगों और मोटी तनख्वाह पा रहे लोगों को स्कूलों और दीगर काम करनेवाली जगहों पर लगा दिया जाए। फ़ालतू के कामों, अनुपयोगी सामग्री और साक्षरता के नाम पर कार्यशालाएं और देश भ्रमण पर अब रोक लगानी चाहिए।  जिला   कलेक्टर कार्यालयों में इन कर्मचारियों की ज्यादा जरुरत है जो दक्ष, कुशल और परिपक्व है। ये बहुत देशी किस्म के खांटी लोग है जो जिला पंचायत मे बैठकर काफी काम अच्छे से कर सकते है। राज्य  संसाधनों केन्द्रों के भवन जो सुसज्जित और सुविधायुक्त है उनका उपयोग और बेहतर ढंग से किया जा सकता है अभी तो ये एनजीओ के मठ बने हुए है। नई सरकार फिर से इनका मूल्यांकन करें और सही काम लें या बंद कर दें यह  देश का दुर्भाग्य ही है कि सन 1990 से साक्षरता के नाम पर पुरे देश को बेवक़ूफ़ बनाया गया। सिर्फ ढाँचे खड़े किये गए, अरबों रूपया बर्बाद हुआ और राज्य संसाधन केंद्र जैसे मठ खड़े किये गए जहां बेहद संभावनाशील लोग भर्ती किये गए थे कि वे पुरे आन्दोलन को एक दिशा देंगे। एनजीओ को इनकी जिम्मेदारी

बड़े स्टेशन पर प्राथमिक सुविधा बनाम 108 की सुविधा

भोपाल रेलवे स्टेशन पर बैठा हूँ सुबह बेंगलोर जाना है। यह एसी का वेटिंग रूम है। जहां बैठे है वहां पास में एक बुजुर्ग सज्जन जिनके साथ दो और लोग है, को अचानक सीने में दर्द उठता है और पसीना आता है। मै समझ रहा हूँ कि यह हार्ट अटैक है और उनके साथ वालो को कहता हूँ कि 108 को फोन करो अपनी यात्रा स्थगित करो। थोड़ी देर में हम लोग उन बुजुर्ग सज्जन को सीधा लेटाकर आराम करने देते है तब तक एक शख्स प्लास्टिक का विच ित्र सा स्ट्रेचर लेकर आता है और कहता है कि अंकल चलो । जब मै कहता हूँ कि उठाकर ले जाओ तो कहता है कोई है नहीं स्ट्रेचर उठाने वाला, आप उठवा दो, तो मै और उन सज्जन के पारिवारिक सदस्य उन्हें स्ट्रेचर पर लेटाकर बाहर ले जाते है। जब मैंने पूछा कि डाक्टर कहाँ है , तो ड्राईवर कहता है अभी आयेंगे तब तक हम बाहर पहुंचते है वहाँ एक दुबला पतला सा लड़का खडा है। ड्राईवर को जब मैंने डांटकर पूछा तो बोला की ये ही डाक्टर है। जब मैंने उस लड़के से नाम पूछा तो हडबडा गया और बोला आपको क्या करना कि डाक्टर कौन है , मै देखभाल कर लूंगा । बहुत बार पूछने पर उसने अपना नाम राहुल बताया और बोला कि मै ही डाक्टर हूँ , जब मैंने पूछा

"मिठास"

"मिठास" ******************** झगड़ा    तो रामखिलावन से भी किया  जब समय पर कपडे इस्त्री करके नहीं दिए सारे समय इस तरह झगड़ा कि  अपने अन्दर का जानवर बाहर कब  निकला और क्रूर हो गया मै  पता नहीं चला,  सिर्फ इस बात पर  कि समय पर चार कपडे इस्त्री करके  नहीं दिए मानो मुझे कही अंतरिक्ष में  जाना था उस समय. याद   आया सड़क पर भरी दोपहरी में  जब मै विशुद्ध फुर्सत में था तो यूँही  लड़ पडा था बस स्टेंड पर फगनलाल मोची से भी  कि मेरे बरसाती जूतों को ठीक से चिपकाया नहीं जब उधड गए थे तीन जगहों से  एक नए शहर में बस स्टेंड पर मोची से झगड़ना कितना वीभत्स था सिर्फ बारह आने के लिए,   मुझे लगा था सही हूँ मै उस वक्त  फिर   यह झगड़ा मेरे साथ एकाकार हो गया  जब कभी कही से गुजरता तो लगता कि हर नजर  घबराहट से देख रही है कि मै शुरू ना हो जाऊ  गली मोहल्ले और घर परिवार में भी यही  नजरें मुझे कोसती रहती और खौफ खाती  एक शख्स एक शब्द के साथ जुड़ गया  और इस तरह से झगड़ालू का विशेषण चिपका  जिन्दगी की लम्बी व्यथा कथा शुरू हुई मित्रों  ये   समय मिलजुल कर लड़ने का था  झींगुर से लेकर दुनि

प्रेत से मुक्ति की जरुरत

वैदिकाश्रम, गणेश मंडल, सोनार वाड़ा, महाराष्ट्र ब्राहमण सभा, सारस्वत समाज आदि वो जगहें जिन्हें मै बचपना से जानता हूँ इंदौर में और शायद ही कोई मराठी भाषी होगा जो इन जगहों को नहीं जानता होगा. मेरे अपने परिवार में दर्जनों शादियाँ, जनेऊ और ना जाने कितने पारिवारिक कार्यक्रम यहाँ संपन्न हुए है. आज एक ऐसे ही एक कार्यक्रम में मै इंदौर के सारस्वत समाज धर्मशाला में था तो देखा कि इस जगह की हालत बहुत खराब हो गय ी है. इसी तरह से बाकी सब जगहें भी धीरे धीरे ख़त्म हो गयी है और जर्जर हालत में है. एक ओर अन्य समाजों के भवन जहां फाईव स्टार बन गए, एसी लग गए और बहुत सुविधाजनक हो गए वही मराठी समाज के ये सार्वजनिक स्थल क्यों ख़त्म हो गए. जब कुछ मराठी भाषी मित्रों और बुद्धिजीवियों से बातें की, तो उन्होंने जो बताया वो बेहद चिताजनक था. मै सिर्फ मराठी भाषी होने के नाते या ब्राहमण होने के नाते से नहीं वरन एक जागरुक समाज का सदस्य होने के नाते और एक मध्यमवर्गीय इंसान होने के नाते यह टिप्पणी बहुत गंभीरता से कर रहा हूँ. यह बात उभरी कि मराठी समाज को पेढी, समाज, और अन्य ऐसी गतिविधियों से जोड़ा गया, साल भर चलने वाले