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Showing posts from September, 2013

जनसत्ता मे मेरा ब्लॉग आज दिनांक 18 सितम्बर 2013 को

जनसत्ता मे मेरा ब्लॉग आज दिनांक 18 सितम्बर 2013 को 

सुन रहे हो ना बाबू मै तुमसे ही मुखातिब हूँ आज सिर्फ तुमसे

जब तुम दार्शनिक बन जाते हो और अपने साथ के लोगों को या तो परम ज्ञानी समझने लगते हो या निपट कोरे कागद तो फ़िर तुम्हारा दर्शन भी व्यर्थ है और तुम्हारा जीना भी किसी ने पूछा कि तुम्हारी दुनिया कहाँ है, बड़ा गंभीर सवाल था गोयाकि घूमते घूमते उम्र हो गई और अब समय भी गुजर रहा है थोड़ा और शेष........या यूँ कहूँ कि समर शेष है बस........ फ़िर सोचा कि सच मे जवाब तो मै भी शिद्दत से तलाश रहा हूँ. अचानक एक जवाब सूझा- दुनिया मेरे से शुरू होती है और मेरे से ही खत्म होती है. बस इस सब मे आप कही किसी से टकरा गये तो ठीक वरना सफर तो अनवरत जारी ही है. सवाल तब भी उठना लाजिमी है जब तुम दूसरों की हर एक्शन को, हर बात को बहुत गहराई से ऐसे देखते हो मानो यह कोई एलियन है और तुम खुद परम ज्ञानी और फ़िर स्वयं को सिद्ध महात्मा समझ कर श्रेष्ठ समझने का जो कीड़ा तुम्हें काटता है वह किसी और को तो नहीं पर तुम्हें अंदर से एक दिन जरुर खोखला कर देता है बाबू............सुन रहे हो ना. और अचानक एक दिन तुम पाते हो इन नर पिशाचों मे तुम अकेले ऐसे हो जो श्रेष्ठ हो और बाकि सब तुच्छ तो यही सही समय है जब तुम्हें सब छोड़कर आ

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही निशाँ होगा.

यह है काकोरी जो अब सिर्फ ९ अगस्त और १९ दिसंबर को यानी की साल मे दो बार याद किया जाता है. "बच्चे आते है आसपास के स्कूलों के, साहब लोग आते है, अधिकारी आते है, विधायक आते है, पुलिस वाले आते है इन दो दिनों मे मेला लगता है, खूब बड़े बड़े कार्यक्रम होते है, बाकि तो सब ऐसे ही रहता है. कभी कभी कोई दो-तीन लोग आ जाते है. हम तो चौकीदार है अशोक नाम है हमारा, अठारह हजार वेतन है, लोक निर्माण विभाग के कर्मचारी है हम, दिन मे हम रहते है, दूसरा रात मे आता है"  लखनऊ से बीस किलोमीटर दूर काकोरी कांड की याद मे बना यह शहीद स्मारक आज बेहद शांत था मै हरदोई से आ रहा था. बचपन से पढ़ा था और सुना था आज अचानक इधर आने का मन हुआ और आ गया. १४ बीघा मे बना यह स्मारक बाज नगर मे है. बढ़िया शांत जगह है, बैठने की सुन्दर व्यवस्था है, एक पुस्तकालय है जिसमे शायद पचास पुस्तकें है और फुल टाईम कर्मचारी ना होने से यह साल मे दो ही दिन खुलता है और लोग इसका लाभ जमकर उठाते है. आसपास के लोग क्यों आये भला?  अब ये देशभक्ति आदि किसी के काम की नहीं है जनाब, मूर्ख थे ये सारे लोग जिनकी तस्वीरें लगी है जो देश की खातिर झूल गये फांस

उस युवा को सच मे सलाम जो करता तो मजदूरी है पर इतना जागरूक और स्पष्ट कि बता नहीं सकता.

लखनऊ मे एक ऐसे कॉलोनी मे रहता हूँ जहाँ ज्यादा बड़े अफसर , पुलिस वाले और तथाकथित ओहदेदार  लोग रहते है इसमे एनजीओ से लेकर डाक्टर भी शामिल है. आज शाम को जब बिजली नहीं थी तो मेरे पड़ोस मे कुछ लोग बैठे थे जिनमे एक डाक साब थे रिटायर्ड और उन्होंने और कॉलेज की एक मेडम और उनके इंजिनियर पति ने एक गरीब बच्चे को इतनी जोर से तमाचा मारा कि सारे निशान उसके गालों पर  आ गये. बच्चा घर गया और अपने बड़े भाई को बुलाकर लाया. भाई ने मेरे सामने इन तीन बड़े लोगों की जब क्लास ली तब मुझे पता चला कि क्यों मारा. कारण यह था कि वो बच्चा इन मेडम के घर के सामने से कई बार निकला था क्योकि उसकी आज छुट्टी थी और वो सायकिल चला रहा था , इन्हें शक हुआ कि वो दस बारह साला बच्चा चोर होगा और इनके घर के सामने से निकला है तो कोई गहरी साजिश रच रहा होगा. उस बच्चे के भाई ने कहा कि क्या आपके बच्चे सायकिल नहीं चलाते , क्या हमें सड़क पर घूमने का कोई हक नहीं है , बेचारे मेरे भाई आज होटल की छुट्टी थी इसलिए घर से बाहर घूम रहे थे , वे सुल्तानपुर के पास किसी गाँव से आये है और तेलीबाघ मे किसी दूकान पर लिट्टी चोखा बनाने का काम करते  है.

अमर उजाला मे मेरा आज ब्लॉग 7 सितम्बर 2013

अमर उजाला मे मेरा आज ब्लॉग 7 सितम्बर 2013 http://blog.amarujala.com/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%89%E0%A4%97-%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%95/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE/%E0%A4%89%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%95/

उच्च शिक्षा और सीनियर सेकेंडरी कक्षाओं की ज्यादा ध्यान दिया जाये- सन्दर्भ उप्र की शिक्षा व्यवस्था

उप्र मे हरदोई जैसे जिला मुख्यालय पर सीनियर सेकेंडरी कॉलेज की स्थिति इतनी दयनीय है कि बता नहीं सकता. प्रधानाचार्य मजबूर, बच्चे छत से कूद जाते है यदि वे दरवाजे पर ताला लगाकर रखते है तो, डाईट मे फर्नीचर है पर ४५० शिक्षक अभ्यर्थियों को जमीन पर बैठना पडता है, कालेजों मे हालत खराब, बिजली नहीं पंखे नहीं, और अध्यापकों की भारी कमी. हालत इतनी खराब कि हर कक्षा के तीन चार सेक्शन होने के बाद और कक्षा मे सत्तर से अस्सी छात्र होने के बाद भी राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की ओर से कोई ठोस पहल नहीं ना बजट ना प्रावधान और शैक्षणिक स्तर का मत पूछिए भा जान बच्चों को कुछ पता नहीं , सितम्बर माह चल रहा है और वे साधे सात पर स्कूल आते है और साढ़े बारह तक मैदान मे खड़े रहते है बस फ़िर ट्यूशन चले जाते है, कभी कोई जाता नहीं देखने परखने . रसायन शास्त्र के व्याख्याता ने जब रसायन की प्रयोगशाला खोली तो लगा कि मै सत्यजीत रे की किसी फिल्म के दृश्य मे आ गया हूँ मकड़ी के जाले और सदियो से जमी हुई धूल और उपकरण टूटे-फूटे मानो किसी ने बरसों से छुआ भी नहीं. कह रहे थे कि क्या करना है साहब ना साधन है ना बच्चे सीखना चाहते है.